tag:blogger.com,1999:blog-9768039879741638482024-03-19T18:06:31.251+05:30घोस्ट बस्टर का ब्लॉगUnknownnoreply@blogger.comBlogger3117tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-36921275232810059752010-01-13T16:58:00.001+05:302010-01-13T17:02:38.303+05:30और अब एक बेहद आसान सांकेतिक विज्ञान पहेली तस्लीम वाले जाकिर भाई के लियेभई अपन तो गच्चा खा गये सांकेतिक का संकेत समझने में. <a href="http://ts.samwaad.com/2010/01/59.html" target="_blank">जाकिर भैय्या कहते हैं</a> कि दैनिक हिन्दुस्तान ने बताया कि किसी ऑस्ट्रेलियन मौसम विज्ञानी ने बोला करके कि ओजोन का होल सिकुड़ चला है. उसी रपट से एक चित्र उन्होंने अपनी पहेली के लिये चुन लिया. अब दैनिक हिन्दुस्तान के किसी गैर जानकार और लापरवाह पत्रकार ने ओजोन होल को दर्शाने के लिये होल-पंच क्लाउड का चित्र लगाया था और हमने जस का तस टीप लिया तो इसमें हमारी क्या गलती? कह तो दिया था कि केवल सांकेतिक पहेली है.<br />
<br />
बात तो सही है. चलिये जाने देते हैं. लेकिन फ़िर मन में ख्याल आया कि जाकिर भाई इतनी शानदार पहेलियां बूझने के लिये न जाने कहां कहां से ढूंढ कर लाते हैं. लेकिन खुद उन्हें कभी अवसर नहीं मिलता कि वे भी एक प्रतियोगी की तरह शामिल हो सकें. तो हमने भी एक पहेली बनाई, उन्हीं के नक्शएकदम पर चलते हुए इसे सांकेतिक पहेली का रूप दिया. आज यही पोस्ट है.<br />
<br />
वैसे तो ये पहेली खालिस रूप से जाकिर भाई के लिये बनाई गई है पर बाकी लोगों के भी इसमें भाग लेने पर कोई मनाई नहीं है. आप भी अपनी किस्मत आजमा सकते हैं. पहेली बहुत आसान है, कोई बच्चा भी आसानी से बूझ सकता है. जरा बताइये तो इस चित्र में क्या दिखाया गया है. सही जवाब देने वाला होगा पहेली मर्मज्ञ. सर्टिफ़िकेट के बारे में भी सोचेंगे. <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLhuhW8MQQUxPngWM3AQh-yKGZUquxCnNR2DtNyippo8qn8bO4hK3w1N423CSn7ZJ2dkUkl5Yt_QoSGfaPK0WNxuAI-ZxpRQI9iOQ-pMWTAZ0kXDN9CkqgdUUbmr4KmFVVlby3oUVmc3o_/s1600-h/puzzle.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="190" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLhuhW8MQQUxPngWM3AQh-yKGZUquxCnNR2DtNyippo8qn8bO4hK3w1N423CSn7ZJ2dkUkl5Yt_QoSGfaPK0WNxuAI-ZxpRQI9iOQ-pMWTAZ0kXDN9CkqgdUUbmr4KmFVVlby3oUVmc3o_/s200/puzzle.png" width="200" /></a><br />
</div><br />
कुछ पहेली विशेषज्ञों के जवाब (जो अनफ़ॉर्चुनेटली गलत जवाब हैं) यहां आपकी मदद के लिये साथ में दिये जा रहे हैं. आशा है इन गलत पगडंडियों से बचते हुए सही पथ पकड़ने में कुछ मदद मिलेगी.<br />
<br />
<b>१) सीमा गुप्ता जी:</b> रस्सी.<br />
<br />
<b>२) सीमा गुप्ता जी (फ़िर से):</b> Rope. <br />
A rope is a length of fibers, twisted or braided together to improve strength for pulling and connecting. It has tensile strength but is too flexible to provide compressive strength (i.e. it can be used for pulling, but not pushing). Rope is thicker and stronger than similarly constructed cord, line, string, or twine.<br />
<br />
<b>३) अल्पना वर्मा जी:</b> जूट से बनी रस्सी है.<br />
<br />
<b>४) प्रकाश गोविंद जी:</b> रस्सी है ये. <br />
(i) A flexible heavy cord of tightly intertwined hemp or other fiber.<br />
(ii) A sticky glutinous formation of stringy matter in a liquid.<br />
<br />
<b>५ उड़न तश्तरी जी: </b>रस्सी जैसा ही कुछ लगता है.<br />
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आप हिन्दी में लिखते हैं, अच्छा लगता है. कृप्या अपने जैसे कुछ और बांगडु़ओं को भी हिंदी चिठ्ठाकारी में आने के लिये प्रेरित करें. आज ही कम से कम दस नये हिंदी चिठ्ठे बनवायें और इस चिरकुट समुदाय की सदस्य संख्या में इज़ाफ़ा करने में अपना सक्रिय योगदान दें. प्रोत्साहन ही सफ़लता की ओर प्रथम कदम है.<br />
<br />
धन्यवाद,<br />
<br />
- समीर लाल<br />
<br />
<b>६) डॉ. अरविन्द मिश्र जी:</b> आधारभूत संरचना की गहन तत्व विवेचना के उपरांत यही निष्कर्ष पाया कि हो न हो ये उसी सन (हिन्दी वाला) से निर्मित कोई व्यवस्था है जो अपनी भौतिक अवस्था में रस्सी (या रस्सा, हा हा) कहलाने के करीब है. बाकी पूरी जानकारी तो गुणीजन ही देंगे.<br />
<br />
<b>७) अल्पना वर्मा जी (फ़िर से):</b> नायलोन की रस्सी भी हो सकती है.<br />
<br />
<b>८) संजय बेंगाणी जी: </b>सही जवाब तो आ ही चुका है. वैसे सुना है कि पामेला एंडरसन और एंजलीना जोली के बैड के पास भी ऐसी ही रस्सी रखी रहती हैं, लेकिन शायद इससे कुछ पतली. यू नो हाउ मच दे....<br />
<br />
<b>९) रचना जी:</b> मिस्टर घोस्ट बस्टर! आपसे ऐसी घटिया पोस्ट की उम्मीद नहीं थी. नारी की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं से आम ब्लॉगर का ध्यान हटाकर उसे इन फ़ालतू की पहेलियों में उलझाने के आपके प्रयास की मैं निंदा करती हूं. इसे लेकर आप पर क्या दावा किया जा सकता है, इस बारे में मैं एक अच्छे लॉयर से कन्सल्टेशन ले रही हूं. वैसे भी अब संसद में कानून पास होने वाला है. उसके बाद रस्सी को रस्सा कहने वाले कहने से पहले हजार बार सोचेंगे.<br />
<br />
<b>१०) शिवकुमार मिश्र जी:</b> आचार्य सिद्धू जी महाराज कहते हैं - "ओये गुरु, सुन ले. रस्ते में पड़ी रस्सी को कभी सांप न समझना. धोखे से हुई गलती को तुम पाप न समझना. स्टेज पर चढ़ कर अगर कर लो कभी बक-बक, अपने को मगर सिद्धू का तुम बाप न समझना."<br />
<br />
<b style="background-color: yellow;">११) घोस्ट बस्टर: </b>दोस्तों, दोस्तों, दोस्तों! जरा ध्यान दीजिये. ये एक सांकेतिक पहेली है, जैसा मैंने पहले कहा. कृप्या जवाब देते समय इस बात का ख्याल रखिए. अभी तक के सभी जवाब सही हल से काफ़ी दूर हैं.<br />
<br />
<b>१२) लवली कुमारी जी:</b> भुजंग. इसकी बनावट के सीधेपन को देखते हुए कह सकते हैं कि ये एक भारतीय भुजंग नहीं हो सकता.<br />
<br />
<b>१३) सुरेश चिपलूनकर जी:</b> ये वो फ़ांसी का फ़ंदा है जो अफ़ज़ल के गले में जाने के लिये राष्ट्रपति महोदया द्वारा अनावरण के इंतजार में है.<br />
<br />
<b>१४) सीमा गुप्ता जी (एक बार फ़िर से):</b> swing (झूला).<br />
<br />
<b>१५) दिनेशराय द्विवेदी जी: </b>इस प्रकार की उलझन में डालने वाली पहेलियों का कोई एक विशिष्ट हल निर्धारित नहीं किया जा सकता. वैसे चित्र को लगाने से पहले आपने कॉपीराइट प्रावधानों का ध्यान तो रखा ही होगा.<br />
<br />
<b>१६) ab inconvenienti: </b>I won't be a part of these bullshits anymore.<br />
<br />
<b>१७) rachna singh जी:</b> maerii baat kaa ab tak koee jawaab kyon nahIIn diyAa gayaa??? watch for the next post on naari.<br />
<br />
<b>१८) बबली जी:</b> आपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!<br />
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!<br />
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५५ गलत जवाबों के बाद...<br />
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<b style="background-color: yellow;">५६) घोस्ट बस्टर: </b>अफ़सोस की बात है कि इतने हिंट देने के बाद भी कोई भी इस आसान सी पहेली को नहीं बूझ पाया. सही जवाब है - ये एक बाघ की पूंछ है. वाइल्डलाइफ़ में रुचि रखने वाले जानते हैं कि दुनिया में बाघों की संख्या कितनी तेजी से कम होती जा रही है. हालांकि विश्वस्तर पर टाइगर्स के बचाव के लिये <a href="http://projecttiger.nic.in/" target="_blank">अनेक योजनाएं </a>बनाई गई हैं पर अब तक वे नाकाफ़ी साबित हुई हैं. आइये हम सब शपथ लें कि जितने भी हो सकें, बाघ को बचाने में अपना योगदान देंगे. यही एक विज्ञान प्रेमी ब्लॉगर का अपनी ओर से एक विनम्र प्रयास है.Unknownnoreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-52665656699309523162009-09-13T06:00:00.009+05:302009-09-13T08:14:06.636+05:30ग्वालियर पुस्तक मेले की सैर और कुछ खरीदी<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCglCICFL6dNPS25Pd-NPB4mpMBCgF5ebPsrcF2OhWGXVQ3tjll9AI3BRycQwg0GYOJuEX7CCjiWE-nZmTbRmsWLoaGPKTyij4Nln-MtAQrMk7Xu6QBkUQ0sfPpW1pKtgbcq1B9iZGOsaI/s1600-h/Book+Fair.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCglCICFL6dNPS25Pd-NPB4mpMBCgF5ebPsrcF2OhWGXVQ3tjll9AI3BRycQwg0GYOJuEX7CCjiWE-nZmTbRmsWLoaGPKTyij4Nln-MtAQrMk7Xu6QBkUQ0sfPpW1pKtgbcq1B9iZGOsaI/s320/Book+Fair.jpg" /></a></div>कई वर्षों से लगातार यही सुनने में आ रहा है कि पुस्तकों में आम पाठकों की रुचि तेजी से समाप्त होती जा रही है. खास तौर पर हिन्दी की किताबों का तो बुरा हाल है. हाल ही में दिल्ली पुस्तक मेले में पाठकों की कम उपस्थिति से उपजे निराशाजनक परिदृश्य की जानकारी देती श्री <a href="http://satyarthmitra.blogspot.com/2009/09/blog-post.html" target="_blank">सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी की भी पोस्ट पढ़ी</a>.<br />
<br />
मगर सुकून है कि कम से कम हमारे यहां अभी ऐसे हालात नजर नहीं आते. प्रतिवर्ष अगस्त के महीने में जिस खास आयोजन का पुस्तक प्रेमियों को इंतजार रहता है वह है स्थानीय फ़ूलबाग मैदान पर सजने वाला पुस्तक मेला. पिछ्ले कुछ वर्षों से दैनिक भास्कर ग्रुप के तत्त्वावधान में आयोजित होते आए पुस्तक मेले का इस बार का संयोजन दिल्ली की एक संस्था 'समय इंडिया' ने किया. काफ़ी सारे नामी-गिरामी प्रकाशकों की उपस्थिति से मेले में खासी रौनक रही.<br />
<br />
७ से १६ अगस्त तक चले मेले में हमने दो दिन फ़ेरे लगाये और कुछ खरीद-फ़रोख़्त की. पहला दौरा ९ अगस्त को रहा और दूसरा मेले के अंतिम दिन, यानी १६ अगस्त को (<a href="http://pret-vinashak.blogspot.com/2009/09/blog-post.html" target="_blank">१५ को भोपाल से लौटे थे</a>). १६ तारीख़ को दिन भर काफ़ी तेज पानी बरसता रहा, लेकिन पुस्तक प्रेमियों के उत्साह पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा और वे बड़ी संख्या में मेले में नजर आये. ये देखकर भी अच्छा लगा.<br />
<br />
हरेक स्टॉल पर लोगों का खासा हुजूम था. हालांकि अंग्रेजी पुस्तकों की संख्या ज्यादा थी पर हिन्दी की अच्छी किताबें भी<br />
कम नहीं थीं और लोग इन्हें खरीद भी रहे थे. बच्चों की किताबों में टीवी की दखल स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी. बार्बी डॉल से लेकर टॉम एण्ड जैरी तक पुस्तकाकार उपस्थित होकर बच्चों को लुभा रहे थे. चलो इस बहाने ही सही, बच्चे पन्ने तो उलटना सीखें. वरना तो उन्हें ईडियट बॉक्स के कार्टून शोज़ से बाहर आने की फ़ुरसत ही नहीं है.<br />
<br />
पुस्तक मेले को ज्यादा आकर्षक बनाने के लिये कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी साथ ही साथ चलते रहते हैं. ९ तारीख़ को बच्चों के लिये लॉफ़्टर चैलेंज का आयोजन था. छोटे-छोटे नौनिहाल, चार से लेकर बारह-चौदह की उम्र तक, स्टेज पर बड़े ही दिलेर अंदाज में उसी प्रकार के चालू-चलताऊ और कुछ हद तक अश्लील जोक्स सुना रहे थे जैसे कि टीवी पर इस प्रकार के फ़ूहड़ शोज़ में नज़र आते हैं. सामने दर्शकों में बैठे उनके माता-पिता अपने कलेजे के टुकड़ों के इन प्रदर्शनों को देखकर बलिहारी जा रहे थे. टेलीविज़न का कितना जबर्दस्त असर है पब्लिक पर. (पिछली ट्रेन यात्रा में एक चीज़ जो बार-बार ध्यान खींच रही थी वो ये कि कई सारे कस्बेनुमा इलाकों की झोंपड़-पट्टी जैसी बस्तियों में तकरीबन हर घर के ऊपर डीटीएच की गोल छतरी नजर आ रही थी.)<br />
<br />
काफ़ी देर रात तक भी मेले में लोगों का तांता लगा रहा. ज्यादातर लोग सिर्फ़ तमाशबीन नहीं थे बल्कि कुछ न कुछ खरीद रहे थे. प्रवेश शुल्क की व्यवस्था होने से भी गैर-जरूरी भीड़ की छंटनी हो जाती है. ये अच्छा है. १६ तारीख़ को बच्चों के लिये डांस प्रतियोगिता थी. इसमें भी अच्छी संख्या में बच्चों ने भाग लिया. यहां प्रदर्शित सभी फ़ोटो १६ तारीख़ के ही हैं.<br />
<br />
<center><embed flashvars="host=picasaweb.google.com&captions=1&hl=en_US&feat=flashalbum&RGB=0x000000&feed=http%3A%2F%2Fpicasaweb.google.com%2Fdata%2Ffeed%2Fapi%2Fuser%2Fghobus%2Falbumid%2F5380615999970389041%3Falt%3Drss%26kind%3Dphoto%26authkey%3DGv1sRgCL-38MOyv9KudQ%26hl%3Den_US" height="400" pluginspage="http://www.macromedia.com/go/getflashplayer" src="http://picasaweb.google.com/s/c/bin/slideshow.swf" type="application/x-shockwave-flash" width="600" /></embed></center><br />
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कुछ खरीदी जो इस बार के पुस्तक मेले से की गयी:<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5hIt-yn_57pDY-MfJia_pv08GPf6Te6lgUI-o4RfYaFzqb3I9-7SFOKwPSBEKEWXVxJgsdMgfQ0P0dswaNuuLJg9N7qnPcr9qyuOxlMx6jf4C1LNWUgglGUuM4qaja6O-uJcDruGEz-_Z/s1600-h/23HindiKahaniyan+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5hIt-yn_57pDY-MfJia_pv08GPf6Te6lgUI-o4RfYaFzqb3I9-7SFOKwPSBEKEWXVxJgsdMgfQ0P0dswaNuuLJg9N7qnPcr9qyuOxlMx6jf4C1LNWUgglGUuM4qaja6O-uJcDruGEz-_Z/s200/23HindiKahaniyan+copy.jpg" /></a><b>1) जैनेन्द्र कुमार द्वारा चुनी हुई २३ हिन्दी कहानियाँ:</b> एक सुप्रसिद्ध रचनाकार द्वारा पसन्द की गयी पिछले सौ वर्षों की प्रतिनिधि हिन्दी कहानियाँ. प्रेमचन्द की कफ़न और गुलेरी जी की 'उसने कहा था' के साथ जयशंकर प्रसाद और वृन्दावनलाल वर्मा की कहानियाँ इसमें शामिल हैं. विशम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की 'ताई' तो हर बार आँख नम करती है. सियारामशरण गुप्त की 'काकी' उसी से आगे की कथा लगती है और लगभग वही प्रभाव दिखाती है. इसके अलावा इलाचन्द्र जोशी की 'रेल की रात', यशपाल की 'मक्रील', विष्णु प्रभाकर की 'रहमान का बेटा' और अज्ञेय की 'विपथगा' भी हैं.<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaGH3LawExsdjs8FBWAHXDOstCVPuve9DaAOJ-HjqQA0qgz0K9jLfS-Ws-iLUyLxjApEFYTr_sUEl52SwDZI-ydgakeooFknMI2q4gRZgyNM5mpXrykG1_bCQhXqFdL3uOSC8vyhF5iYFL/s1600-h/AmritlalNagar+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjaGH3LawExsdjs8FBWAHXDOstCVPuve9DaAOJ-HjqQA0qgz0K9jLfS-Ws-iLUyLxjApEFYTr_sUEl52SwDZI-ydgakeooFknMI2q4gRZgyNM5mpXrykG1_bCQhXqFdL3uOSC8vyhF5iYFL/s200/AmritlalNagar+copy.jpg" /></a><b>२) अमृतलाल नागर का उपन्यास 'सुहाग के नूपुर':</b> नागर जी को मैने आज तक नहीं पढ़ा है. लम्बे समय से इच्छा थी. इससे पहले हिन्द पॉकेट बुक्स में भी यह किताब खरीद चुका हूं पर वह सम्पादित संस्करण था और यह सम्पूर्ण है. अब पढ़ता हूं. आवरण पर गुलाम मोहम्मद शेख की प्रसिद्ध कृति 'बोलती सड़क' का चित्र है जो काफ़ी आकर्षक है और एकदम से ध्यान खींचता है.<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbEgQAcwZGRUE-LE4bXZRic9xvmOvoFUoRMVWmMSDcdWyrkyAkCVJb_fCaH5Fhob8UAGWeTS8aKqZ_70PQzuqnO0lLPXTtp6KmweohiZJNqRc4rSmmrSaaEQuJ_-xGstT0gzuSApOTNOcM/s1600-h/Bachchan_MyBestPoetry+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbEgQAcwZGRUE-LE4bXZRic9xvmOvoFUoRMVWmMSDcdWyrkyAkCVJb_fCaH5Fhob8UAGWeTS8aKqZ_70PQzuqnO0lLPXTtp6KmweohiZJNqRc4rSmmrSaaEQuJ_-xGstT0gzuSApOTNOcM/s200/Bachchan_MyBestPoetry+copy.jpg" /></a><b>३) हरिवंशराय बच्चन की 'मेरी श्रेष्ठ कविताएँ':</b> मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश और निशा निमंत्रण ले चुकने के बाद अब आकुल अंतर और एकान्त संगीत का नम्बर था. लेकिन स्वयं कवि की चुनी हुई कविताएँ देखकर इसी को खरीद लिया. यह भी काफ़ी मोटा माल है. लेकिन बच्च्न की जिस कविता की मुझे जोरों से तलाश है वह इसमें भी नहीं दिखी. नेट पर तलाशने पर केवल एक छ्न्द हाथ आया. देखिये <br />
<br />
<div style="color: blue;">'अब्बर देवी जब्बर बकरा, तागड़ धिन्ना नागर बेल'</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">गाँधी की आँधी आई थी बीते लगभग बरस पचास</div><div style="color: blue;">अपने साथ सपन लाई थी सब कुछ होगा सब के पास</div><div style="color: blue;">वादों की लादी भर जनता आज रही है कांधें झेल</div><div style="color: blue;">अब्बर देवी, जब्बर बकरा तागड़ धिन्ना नागर बेल</div><br />
कुछ और पंक्तियाँ जो मेरे स्मृतिकोष से झांकती हैं:<br />
<br />
<div style="color: blue;">i) वोट नहीं क्यूं पाया तुमने, तिकड़मबाजी में तुम फ़ेल</div><div style="color: blue;">ii) घर की रानी पानी भरती, सर पर करती राज रखेल.</div><br />
कई बरस पहले इंडिया टुडे के साहित्य वार्षिकी अंक में पढ़ी थी. इसे ढूंढने में कोई मित्र मदद कर सकता है क्या?<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgI2x_WgGo1qOpDgJzGf7IJyvYOpjUb9Cl-OrWeW-E3NfNS_5N7p_RIRaHuQ88scYQF15SZQzgXvQrgcVpmrO_eQmT-Xvq1-Y-xw4j2FnmBMr44xz3bxtG01De6fK43GqJKkNF2HRgAj8NR/s1600-h/Bachchan_NeeliChidiya+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgI2x_WgGo1qOpDgJzGf7IJyvYOpjUb9Cl-OrWeW-E3NfNS_5N7p_RIRaHuQ88scYQF15SZQzgXvQrgcVpmrO_eQmT-Xvq1-Y-xw4j2FnmBMr44xz3bxtG01De6fK43GqJKkNF2HRgAj8NR/s200/Bachchan_NeeliChidiya+copy.jpg" /></a></div><b>४) बच्चन की 'नीली चिड़िया':</b> कुछ वर्ष पहले बड़ी बिटिया के लिये हिन्दी के बाल-गीतों की पुस्तिकाएँ ढूंढना चाही थीं तो बड़ी निराशा हाथ लगी थी. अंग्रेजी में तो भरपूर सामान उपलब्ध है पर हिन्दी में स्तरीय सामग्री कम मिल पाती है. इस किताब में कुछ मधुर बाल-गीत हैं जो महाकवि ने अपने एक पौत्र (अभिषेक नहीं) के जन्मदिवस पर उसके लिये रचे थे. क्या बढ़िया भेंट है बच्चे के लिये. एक पढ़िये - <br />
<br />
<table align="center" cellpadding="5"><tbody>
<tr><td width="225"><div style="color: blue;">बगुलों ने ऊपर से देखा</div><div style="color: blue;">नीचे फ़ैला छिछला पानी,</div><div style="color: blue;">उस पानी में कई मछलियाँ</div><div style="color: blue;">तिरती-फ़िरती थीं मनमानी ।</div></td><td width="225"></td></tr>
<tr><td></td><td><span style="color: blue;">सातों अपने पर फ़ड़काते</span><br />
<span style="color: blue;">उस पानी पर उतर पड़े,</span><br />
<span style="color: blue;">अपनी लम्बी-लम्बी टाँगों</span><br />
<span style="color: blue;">पर सातों हो गए खड़े ।</span> </td></tr>
<tr><td><div style="color: blue;">खड़े हो गए सातों बगुले</div><div style="color: blue;">पानी बीच लगाकर ध्यान,</div><div style="color: blue;">कौन खड़ा है घात लगाए</div><div style="color: blue;">नहीं मछलियाँ पाईं जान ।</div></td><td></td></tr>
<tr><td></td><td><div style="color: blue;">तिरती-फ़िरती हुई मछलियाँ</div><div style="color: blue;">ज्यों ही पहुंचीं उनके पास,</div><div style="color: blue;">उन सातों ने सात मछलियाँ</div><div style="color: blue;">अपन चोंचों में लीं फ़ाँस ।</div></td></tr>
<tr><td><div style="color: blue;">पर फ़ड़काकर ऊपर उठकर</div><div style="color: blue;">उड़े बनाते एक लकीर,</div><div style="color: blue;">सातों बगुले ऐसे जैसे</div><div style="color: blue;">आसमान में छूटा तीर ।</div></td><td></td></tr>
</tbody></table><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWrtYdJGqJYXkzGlm67uArXfdczNm6GSzem3oylzEhY35gY_VcDjL7YMchWvCb6cVRqbbLOs5eRDwclJlyyMzIIKsv3xqkjPiAm2P7Ol06eIYvaqL3HoS-OFFJvaILU7WwK4vECqTbF-qG/s1600-h/Faiz+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWrtYdJGqJYXkzGlm67uArXfdczNm6GSzem3oylzEhY35gY_VcDjL7YMchWvCb6cVRqbbLOs5eRDwclJlyyMzIIKsv3xqkjPiAm2P7Ol06eIYvaqL3HoS-OFFJvaILU7WwK4vECqTbF-qG/s200/Faiz+copy.jpg" /></a></div><b>५) फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की प्रतिनिधि कविताएँ: </b>इस बेमिसाल शायर की चुनी हुई नज़्में और गज़लें हैं इसमें. राजकमल प्रकाशन को धन्यवाद देने की इच्छा होती है. उन्होंने कई नामी कवि-लेखकों की रचनाओं के कम दाम संस्करण उपलब्ध करवाये हैं.<br />
<br />
कुछ सुनना चाहेंगे? वैसे कोई एक छाँटना काफ़ी कठिन कार्य है.<br />
<br />
<span style="color: blue;">गो<span style="color: red;">*</span> सबको बहम<span style="color: red;">*</span> सागर-ओ-बादा तो नहीं था</span> <span style="color: red;">हालांकि, उपलब्ध </span> <br />
<div style="color: blue;">ये शहर उदास इतना ज्यादा तो नहीं था</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">गलियों में फ़िरा करते थे दो चार दिवाने</div><span style="color: blue;">हर शख़्स का सद-चाक-लबादा<span style="color: red;">*</span> तो नहीं था</span> <span style="color: red;">सौ जगह से फ़टा अँगरखा</span> <br />
<div style="color: blue;">मंजिल को न पहचाने रह-ए-इश्क का राही</div><div style="color: blue;">नादाँ ही सही, इतना भी सादा तो नहीं था</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी</div><div style="color: blue;">सोकर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था.</div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDrjnXlYjKThyZ3VVPKUHWdOXaAttrkwevUWwgRGxH841UC1zxECDVF4rDF79t-NyMdxVI5fA0DlL_trRtqm6XCSjq7DJ3gMp5Ns23RsEwovFsHmh0g_r5RqoaaHl9CMdClJ4wFnsEFuo/s1600-h/JKrishnamoorti+copy.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDrjnXlYjKThyZ3VVPKUHWdOXaAttrkwevUWwgRGxH841UC1zxECDVF4rDF79t-NyMdxVI5fA0DlL_trRtqm6XCSjq7DJ3gMp5Ns23RsEwovFsHmh0g_r5RqoaaHl9CMdClJ4wFnsEFuo/s200/JKrishnamoorti+copy.jpg" /></a></div><b>६) जे. कृष्णमूर्ति की 'सोच क्या है":</b> लम्बे समय तक ओशो को घोंटते रहने के बाद जब, बकौल गालिब, गमे रोजगार ने गमे इश्क पर विजय पाई, तो वह सब पढ़ाई सबसे पहले पीछे छूटी जो इंसान को बुद्धिजीवी होने के भ्रम में डाले रखती है. लेकिन राख में कहीं शोला दबा पड़ा रहा है, जो मौका मिलते ही भड़क उठने को बेताब हो जाता है. कुछ खिंचाव सा लगा इस लेखक और विषय के प्रति, खरीद ली गयी. अब बांचे जाने की प्रतीक्षा सूची में है.<br />
<br />
<br />
<br />
और भी आठ-दस किताबें खरीदी गईं. पर अभी आपको दूसरे और ब्लॉग भी तो पढ़ने होंगे ना. तो इस पोस्ट से आपको यहीं मुक्त करते हैं. बाकी फ़िर कभी.Unknownnoreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-33328761874646814372009-09-10T06:00:00.004+05:302009-09-10T09:25:01.102+05:30लगता है अब हमें भी टिप्पणी मॉडरेशन चालू कर ही लेना चाहिये<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyKwcWXpJi803M-gcFgjIrVQcSroZhlyzUqgJ8DBbSXdPdOJc60nIqMuYP-c70lYzPxxLQd8JGoHKBA4EE_Dbm5JCY2RZR9BgmdfiW932E370t1LBNRGTLYDGUMle8UsHKskpHDjZS8Dlj/s1600-h/Jagjit+Chitra.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyKwcWXpJi803M-gcFgjIrVQcSroZhlyzUqgJ8DBbSXdPdOJc60nIqMuYP-c70lYzPxxLQd8JGoHKBA4EE_Dbm5JCY2RZR9BgmdfiW932E370t1LBNRGTLYDGUMle8UsHKskpHDjZS8Dlj/s400/Jagjit+Chitra.jpg" /></a>इससे पहले कि पूरी बात का खुलासा हो, <span style="font-size: large;"><b>"<span style="color: #cc0000;">अपने</span>"</b></span> चंद अश़आर पेश करने की अनुमति चाहूंगा. <br />
<br />
<div style="color: blue;">चुपके चुपके से रात और दिन टसुओं का बहाना याद हैगा</div><div style="color: blue;">हमको तो अभी तक आशिकी का वो जमाना याद हैगा.</div><br />
हमें पता है कि आपका दिल वाह-वाह करने को मचल उठा होगा. पर दाद देने की जल्दी मत कीजिये. आगे और भी हैं. सुनिये.<br />
<br />
<div style="color: blue;">कभी किताबों में फ़ूल रखना, कभी दरख़्तों पे नाम लिखना</div><span style="color: blue;">हमें भी है याद आज तक वो नजर से हर्फ़<span style="color: red;">*</span>-ए-सलाम लिखना </span> <span style="color: red;">शब्द/अक्षर/Letter/Alphabet</span><br />
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<div style="color: blue;">वह चाँद चेहरे वह बहकी बातें, सुलगते दिन थे महकती रातें</div><span style="color: blue;">वह छोटे छोटे से कागज़ों पर मुहब्बतों के पयाम<span style="color: red;">*</span> लिखना </span> <span style="color: red;">संदेश/Message</span><br />
<br />
<div style="color: blue;">गुलाब चेहरों से दिल लगाना, वह चुपके चुपके नज़र मिलाना</div><span style="color: blue;">वह आरज़ूओं के ख़्वाब बुनना, वह क़िस्सा-ए-ना-तमाम<span style="color: red;">*</span> लिखना </span> <span style="color: red;">Never Ending Story</span><br />
<br />
<div style="color: blue;">मेरे नगर की हसीँ फ़िज़ाओं, कहीं जो उन का निशान पाओ</div><span style="color: blue;">तो पूछना के कहाँ बसे वह, कहाँ है उनका क़याम<span style="color: red;">*</span> लिखना </span> <span style="color: red;">ठिकाना/Location</span><br />
<br />
<span style="color: blue;">गयी रुतों मे 'हसन' हमारा, बस एक ही तो यह मशगला<span style="color: red;">*</span> था </span> <span style="color: red;">कारोबार/Occupation</span><br />
<div style="color: blue;">किसी के चेहरे को सुबह कहना, किसी की ज़ुल्फ़ों को शाम लिखना</div><br />
हां, अब कीजिये इन कलम तोड़ रचनाओं की तारीफ़. हम शुक्रिया कहकर दाद बटोरने में कभी नहीं थकने वाले. आखिर रोज-रोज तो नहीं कहे जाते ऐसे उम्दा शेर. पता नहीं अगली बार कब मूड बने अपना. तो कंजूसी छोड़िये और तारीफ़ उछालिये.<br />
<br />
लेकिन अगर कहीं गलती से ये शेर कहीं और पढ़े सुने लगें तो फ़िर चुपचाप शराफ़त से आगे का रास्ता देख लें. तब किसी कमेन्ट की जरूरत नहीं. अगर करेंगे भी तो मॉडरेट कर दिया जाएगा. जब तक <span style="font-size: large;"><a href="http://nirantar1.blogspot.com/2009/09/blog-post_08.html" target="_blank"><b>गुरुदेव</b></a></span> का आशीर्वाद हमारे साथ है, हमें किसी का डर नहीं.<br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiF-OReaA4Z6gefu6Hm9-G9rkf-qNnmt4uWr2F4QU2Ri9VJRGw7OogOt_fY62QWKJ6UiqPLkxBniERdgNVX1lEM9iVEyg7ljsUWCqNFx3ZrzNwbq4SQwXYuq0VYqGqYx408jaBoe4LpCWlP/s1600-h/jagjitsinghandchitra.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiF-OReaA4Z6gefu6Hm9-G9rkf-qNnmt4uWr2F4QU2Ri9VJRGw7OogOt_fY62QWKJ6UiqPLkxBniERdgNVX1lEM9iVEyg7ljsUWCqNFx3ZrzNwbq4SQwXYuq0VYqGqYx408jaBoe4LpCWlP/s200/jagjitsinghandchitra.jpg" /></a></div>अब एक गज़ल सुनिये. चित्रा सिंह की आवाज में है <span style="font-size: large;"><b><a href="http://nirantar1.blogspot.com/2009/09/blog-post_08.html" target="_blank">गुरुदेव</a></b></span> की ये गज़ल.<br />
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<object data="http://ghobus.googlepages.com/player.swf" height="24" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="290"> <param name="movie" value="http://ghobus.googlepages.com/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile=http://ghobus.googlepages.com/ChitraSingh-EkNaEkShamaAndhereMeinJa.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br />
<br />
<div style="color: red;">स्वर: चित्रा सिंह</div><div style="color: red;">शायर: तारिक बदायूंनी</div><br />
<div style="color: blue;">इक ना इक शम्मा अन्धेरे में जलाये रखिये,</div><div style="color: blue;">सुब्हा होने को है माहौल बनाये रखिये</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">जिन के हाथों से हमें ज़ख़्म-ए-निहाँ पहुँचे हैं,</div><div style="color: blue;">वो भी कहते हैं के ज़ख़्मों को छुपाये रखिये</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">कौन जाने के वो किस राह-गुज़र से गुज़रे,</div><div style="color: blue;">हर गुज़र-गाह को फूलों से सजाये रखिये</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">दामन-ए-यार की ज़ीनत ना बने हर आँसू,</div><div style="color: blue;">अपनी पलकों के लिये कुछ तो बचाये रखिये </div><br />
अठारह महीनों के ब्लॉगर जीवन में कल तीसरी बार ऐसा हुआ कि एक ब्लॉग पर हमारी टिप्पणी मॉडरेट करके साफ़ कर दी गयी. ऐसा कुछ गलत नहीं था टिप्पणी में. ये रही जस-की-तस:<br />
<br />
<blockquote style="background-color: #fff2cc;"><i>???</i><br />
<i>इनमें से अधिकांश शेर जगजीत सिंह या चित्रा सिंह की आवाज में सुने हैं. मूल लेखकों का नाम पोस्ट में साथ दिये जाने की अपेक्षा की जाती है.</i></blockquote><br />
हमारी टिप्पणी साफ़ हुई और वाहवाहियां बरसती रहीं. जय हो मॉडरेशन की. बड़ा काम का हथियार है भाई. इसे तो अब लगा ही लेना चाहिये सभी को. वैसे मुफ़्त में एक सीख मिली. जिस किसी पोस्ट पर उड़न-तश्तरी जी की टिप्पणी ना हो, उसे थोड़े संदेह की दृष्टि से ही पढ़ा जाना चाहिये.<br />
<br />
एक और हो जाए?<a href="http://nirantar1.blogspot.com/2009/09/blog-post_08.html" target="_blank"> <b><span style="font-size: large;">जय </span><span style="font-size: large;">गुरुदेव</span></b></a>. सुनिये.<br />
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<object data="http://ghobus.googlepages.com/player.swf" height="24" id="audioplayer1" type="application/x-shockwave-flash" width="290"> <param name="movie" value="http://ghobus.googlepages.com/player.swf"><param name="FlashVars" value="playerID=1&soundFile=http://ghobus.googlepages.com/JagjitSingh-AbKhushiHaiNaKoiDardRula.mp3"><param name="quality" value="high"><param name="menu" value="false"><param name="wmode" value="transparent"></object><br />
<br />
<div style="color: red;">स्वर: जगजीत सिंह</div><div style="color: red;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEKIUr-R93gQzt3xkYegUJpQAVHU20wgmBXzViU4aCFyQz2GJ_D1JIvUELIYRwEBtMLW6DuL7J746QLddTnIFa0sSvtX8x8vGs72M58R-Q97nyuLI4kVagO4pB7Kh4ANv2EMmfWOdj4sNG/s1600-h/JAGJEET+SINGH.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEKIUr-R93gQzt3xkYegUJpQAVHU20wgmBXzViU4aCFyQz2GJ_D1JIvUELIYRwEBtMLW6DuL7J746QLddTnIFa0sSvtX8x8vGs72M58R-Q97nyuLI4kVagO4pB7Kh4ANv2EMmfWOdj4sNG/s320/JAGJEET+SINGH.jpg" /></a>शायर: निदा फ़ाज़ली</div><br />
<div style="color: blue;">अब खुशी है ना कोई दर्द रूलाने वाला,</div><div style="color: blue;">हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">उसको रूख़्सत तो किया था मुझे मालूम ना था,</div><div style="color: blue;">सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">एक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया,</div><div style="color: blue;">कोई जल्दी में कोई देर से जाने वाला</div><div style="color: blue;"></div><div style="color: blue;">एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा,</div><div style="color: blue;">जिस तरफ देखिये आने को है आने वाला</div><br />
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK5N5l1JvCQmjdeMivhOh0TwXaTLPALLGq1fsw4cEjhjxUkB6nHdtQXO0vUGN3f9gsZQ7D4A7u90SYxVHK6DH1shVvRrZgZRzu0x6G02ZcB9kSjzAZR7vXR0TtBRwDs4Ynk8yjPxaNbwAE/s1600-h/Jagjit+Singh+Chitra+Singh+and+Son+Vivek.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK5N5l1JvCQmjdeMivhOh0TwXaTLPALLGq1fsw4cEjhjxUkB6nHdtQXO0vUGN3f9gsZQ7D4A7u90SYxVHK6DH1shVvRrZgZRzu0x6G02ZcB9kSjzAZR7vXR0TtBRwDs4Ynk8yjPxaNbwAE/s200/Jagjit+Singh+Chitra+Singh+and+Son+Vivek.jpg" /></a></div>ये दूसरी वाली गज़ल बहुत गमज़दा स्वर की है. ये "होप" एल्बम से है जो जगजीत और चित्रा के युवा और इकलौते बेटे विवेक की एक कार दुर्घटना में दुखद मौत के कुछ ही समय बाद जारी किया गया था. ये एल्बम इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि इसके बाद चित्रा सिंह ने गज़ल गायन से मुंह मोड़ लिया. पिछले बीस वर्षों में उनके सिर्फ़ भज़नों के इक्का-दुक्का एल्बम ही आये हैं.Unknownnoreply@blogger.com25tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-22766006287700736322009-09-04T04:30:00.006+05:302009-09-04T08:41:21.722+05:30पापा की बिटिया और ट्रेन-पकड़-शौर्य गाथा (भोपाल यात्रा - अंतिम भाग)घर से रेल्वे स्टेशन का रास्ता होगा यही कोई बीस मिनिट का. स्वतन्त्रता दिवस पर काफ़ी सारा बाज़ार बन्द था, सड़कों पर ज्यादा आवाजाही नहीं थी. पन्द्रह मिनिट में ये सफ़र पूरा कर लेने की उम्मीद लेकर २:१० पर घर से निकला गया. ट्रेन २:४० पर थी. लगा था कि इतना समय पर्याप्त होगा. पर ऐसा कहां होना था.<br />
<br />
<table align="left" border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" style="width: 320px;"><tbody>
<tr><td><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCfulCrMFFNs7El2UkmXBspd7TT2Cgw8ilG7biHHM8YAUMSdZ6w0eZTpycsx_XzJLKEtckcmHaTliP-neR7CUq7m7OkY1EheRU8L-S2QcXLP-0aEQdYjCTyeWyOKWe846tSfAXfiVPgxR0/s1600-h/Reflection.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCfulCrMFFNs7El2UkmXBspd7TT2Cgw8ilG7biHHM8YAUMSdZ6w0eZTpycsx_XzJLKEtckcmHaTliP-neR7CUq7m7OkY1EheRU8L-S2QcXLP-0aEQdYjCTyeWyOKWe846tSfAXfiVPgxR0/s320/Reflection.jpg" width="320" /></a><br />
<div class="cap" style="color: #990000; text-align: left;">खिड़की के काँच में पापा की बिटिया की परावर्तित छवि</div></div></td></tr>
</tbody></table><b><span style="color: blue;">१५ अगस्त, शनिवार</span></b><br />
<br />
<b><span style="color: blue;">दोपहर ०२:१५ बजे</span></b><br />
<br />
पिछले ही दिन भोपाल की सरज़मीं पर पहला कदम रखते ही बारिश की बूंदों ने बड़े प्यार से स्वागत किया था और आज विदाई की बेला में एक बार फ़िर से हल्की बारिश शुरु हो चुकी थी. विन्ड्स्क्रीन पर चमकती बूंदों को दोनों ओर धकेलते हुए वाइपर्स ने घूमना शुरु किया और वापसी के सफ़र की शुरुआत हो गयी. बड़ा सुहाना दिन था. ठंडी हवा के मदमस्त झोंके कार की खिड़की से अंदर आ रहे थे जो प्राकृतिक वातानुकूलन का काम कर रहे थे, और बहुत बढ़िया से कर रहे थे. पता नहीं फ़िर कब दुबारा आना हो, यही सोच कर हमारी नज़रें लगातार बाहर फ़िर रही थीं. सड़क पर कुछ गाते-बजाते जुलूस टाइप के भी नजर आ रहे थे. <br />
<br />
पर प्रदेश की राज़धानी में सुरक्षा व्यवस्था भी तो चौकस होनी चाहिये ना. हमीदिया रोड का रुख करते ही पता चला कि पुलिस ने इधर लम्बे-चौड़े बैरीकेड्स लगा कर आवागमन पर विराम लगा रखा है. यहां से केवल पांच मिनिट का रास्ता बाकी था पर मजबूरन कार को घुमाना पड़ा. आगे से घूमकर किसी और रास्ते से निकल लेंगे ये सोचकर कार को एक गली की ओर मोड़ा गया. पता नहीं क्या संयोग है कि ऐसे हड़बड़ी के क्षणों में ही लोगों का राष्ट्रीय चरित्र यकायक से उभरकर सामने आ जाता है. या शायद ऐसे मौके पर ही इन घटनाओं का हम लोग सही से नोटिस लेते हैं. जैसी की आप किसी भी आम भारतीय नगर में आशा कर सकते हैं, यहां भी वही नज़ारा दिखा. एक मिनी ट्रक के ड्राइवर को इस गली में प्रवेश करते ही पता नहीं च्यास लग आई थी या कोई प्राकृतिक बुलावा आ गया था, जिसके नतीजे में वह स्वयं की प्रकृति और स्वभाव को दर्शाते हुए अपने ट्रक को बीच राह में खड़ा कर, और इस प्रकार यातायात को दक्षतापूर्वक अवरोधित करते हुए किसी अनजान दिशा में चम्पत हो लिया था. मुश्किल से कार के निकल पाने भर की जगह छोड़ी थी जो भारी आवागमन के दबाव से और भी संकरी लग रही थी. भाई-साहब की पेशानी पर पहली बार कुछ बल पड़े दिखे पर अंततः थोड़ी जद्दोजहद के बाद इस जगह से निकलने में कामियाबी हासिल हो ही गयी. पांच-छैः मिनिट यहां खर्च हो गये. दो बजकर तीस मिनिट यहीं हो लिये थे.<br />
<br />
गली ने हमीदिया रोड पर ही कहीं बीच में ले जाकर छोड़ा. स्टेशन के मुख्य प्रवेशद्वार (एक नम्बर प्लेटफ़ॉर्म) के बजाय पीछे के रास्ते से जल्द पहुंचा जा सकता था. जल्दी-जल्दी कार को एक ओर लगाया गया और हम आनन-फ़ानन में रेल्वे ब्रिज की दो-दो सीढ़ियां फ़ांदते हुए चढ़ने लगे. नजर नीचे की ओर थी जिससे कि कुलांचों की लम्बाई और चाल की तीव्रता में तारतम्य बनाये रखा जा सके. आधी सीढ़ियां चढ़ गये होंगे जब एक बार फ़िर राजधानी की कर्मठ पुलिस के अवरोध का सामना हुआ. जड़त्व के नियम का पालन करता हुआ हमारा शरीर उस पीले रंग से पुते बैरीकेड से लगभग टकराते-टकराते बचा. पता चला कि इस रस्ते को आज सुरक्षा के लिहाज से बंद कर दिया गया है. यहां से आगे जाने का कोई चांस नहीं. दो पैंतीस हो चुके थे और अब हिम्मत जवाब देने लगी थी (हालांकि हमने उससे ऐसी कोई मांग नहीं की थी). शताब्दी अक्सर सही समय पर ही रहती है. पांच मिनिट में रवाना हो लेगी और हम यहीं रह जायेंगे.<br />
<br />
कहते हैं कि ईश्वर अगर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा जरूर खोलता है. लेकिन अगर कभी इस प्रक्रिया में उसे कुछ ज्यादा समय लग जाये तो इंसान हाथ पर हाथ धरकर उसका इंतजार करते तो नहीं बैठा रहेगा. सीमेंट से बनी और पहली पुताई की प्रतीक्षा कर रही चार-पांच फ़ीट ऊंची स्टेशन की बाउंड्रीवाल नय़ी सी लग रही थी. लेकिन उसमें मौजूद बड़ा सा छेद उतना ही पुराना दिखता था जितना कि वो हो सकता था. चलती ट्रेनों में सामान बेचने वालों से लेकर भिखारियों और उचक्कों तक के लिये इस प्रकार के शॉर्ट कट्स बड़े काम के होते हैं. साथ ही उन यात्रियों के लिये भी ये एक वरदान की तरह होते हैं जो यात्रा में टिकिट का वजन साथ में ढोना पसंद नहीं करते. इस नवीन मार्ग पर निगाह जाते ही मन में आशा का नवसंचार सा हुआ. कुछ ऐसी ही फ़ुरफ़ुरी आई जैसी कि हैरी पॉटर को मिसेज़ वीज़्ली से प्लेट्फ़ॉर्म नम्बर पौने दस का रास्ता जानकर आई होगी.<br />
<br />
रेल्वे ब्रिज के ऊपर टंगी डिजि़टल घड़ी दो अड़तीस का समय दिखा रही थी. प्लेट्फ़ॉर्म पर कदम रखने में एक मिनिट और लगा और जब कोच के पायदान पर पैर टिकाया तो ठीक दो चालीस हुए थे. सीट पर जाकर बैठने से पहले ही ट्रेन चल पड़ी. आज भला कैसे लेट हो सकती थी? साथ वाली सीट खाली थी. फ़ैलकर आराम में बैठ गये और आँखें बंद करके दिल की धड़कनों के सामान्य गति पा लेने की प्रतीक्षा करने लगे.<br />
<br />
सांसों को व्यवस्थित स्वरूप पाने में कुछ देर लगी. इसके बाद हमने एक उचटती सी निगाह चारों ओर डालकर कोच का सरसरी तौर पर मुआयना किया. बड़ा ही गम्भीर सा माहौल - एक कुलीन सी शांति पसरी हुई. हमने बैग खोलकर काशीनाथ सिंह की "काशी का अस्सी" निकाल ली. आधी जाते हुए रास्ते में पढ़ ली थी, बाकी आधी लौटते हुए खत्म कर लेंगे. कुछ पेज पढ़े. तभी अचानक अगली सीट से एक मीठी खनकदार हंसी की आवाज आई. ध्यान उधर गया. वहां पर एक नवविवाहित सा लगने वाला जोड़ा बैठा था. मैडम जरीदार लाल साड़ी में सीधे तन कर सामने की ओर और उनके हब्बी जी लगभग नब्बे डिग्री पर यानी उनकी ओर मुड़कर बैठे थे. नया-नया बंधन जुड़ा लगता था. रुतबेदार व्यक्तित्व की स्वामिनी मैडम जी मोबाइल पर बात कर रही थीं. हब्बी जी उनकी बात खत्म होने का इंतजार कर रहे थे.<br />
<br />
<table align="right" border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" style="width: 320px;"><tbody>
<tr><td><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7KnQRDIiaGtblHM0Ge92F3RBgtLwEYcFv6zov5OlS7Qvm8_SlufRowjgR08NlDAn9-CADRspILFRZLPVVDqWvcry30_ef0BlV_URszFIjXo03eNa9jfr2JNySmUEEZVHI8DsrOmElqLZ-/s1600-h/Kashinath+Singh.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7KnQRDIiaGtblHM0Ge92F3RBgtLwEYcFv6zov5OlS7Qvm8_SlufRowjgR08NlDAn9-CADRspILFRZLPVVDqWvcry30_ef0BlV_URszFIjXo03eNa9jfr2JNySmUEEZVHI8DsrOmElqLZ-/s320/Kashinath+Singh.jpg" /></a><br />
<div class="cap" style="color: #990000; text-align: center;">जरा ठहरो काशीनाथ सिंह</div></div></td></tr>
</tbody></table>बड़ी देर के बाद मोबाइल बंद हुआ. अब दोनों आपस में मुखातिब हुए. देवी जी अपने देवा जी की ज्ञानवृद्धि में लग गयीं. कुछ अपने पापा जी के बारे में बता रही थीं और श्रीमान जी आश्चर्यजनक धैर्य का परिचय देते हुए इन महाबोरिंग बातों को ऐसे सुन रहे थे जैसे इससे ज्यादा रुचिकर तो दुनिया में कुछ और हो ही नहीं. लग यही रहा था कि सचमुच सुन रहे थे और सुनकर ज्यादा और ज्यादा प्रभावित होते जा रहे थे. पापा जी के अनेक गुणों का विस्तार से बखान चला. हमने काशीनाथ सिंह जी को विराम दिया और ज्यादा रोचक किस्सों में ध्यान लगाया.<br />
<br />
"जब पापा का ट्रांसफ़र फ़लाने शहर में हुआ तो वहां पहुंचकर उन्होंने देखा यहां तो सबकुछ बड़ा अस्तव्यस्त है. उन्होंने लगकर सबको ऐसा ठीक किया कि...कि... सबको सुधारकर रख दिया. आज तक वहां के लोग याद करते हैं....."<br />
<br />
"पापा ने जब मकान बनाया तो बाहर से कारीगर बुलवाये, और डिज़ाइन खुद बनाया, और..."<br />
<br />
"पापा की तो हमेशा से आदत है, स्कूटर में कभी हैंडल लॉक लगाते ही नहीं. बहुत पुरानी बात है. एक बार ऑफ़िस से जल्दी-जल्दी घर आये. स्कूटर बाहर ही खड़ा किया और अंदर चले गये. लौटकर बाहर आये तो पाया स्कूटर गायब."<br />
<br />
"क्या घर के सामने से? दिन में ही?" - जिज्ञासु पति.<br />
<br />
"हां बिल्कुल. पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई. पुलिस वाले तो कुछ कर ही नहीं रहे थे. फ़िर बड़े अफ़सरों से बात की. दो ही दिन में स्कूटर मिल गया."<br />
<br />
"क्या? मिल भी गया?"<br />
<br />
"सचमुच मिल गया. ये पुलिसवाले भी ना, सब मिले रहते हैं. इन्हें सब पता रहता है इन चोरों के बारे में. जब चाहें पकड़ लें, जब चाहें जाने दें."<br />
<br />
अगले घंटे भर तक काशीनाथ सिंह को कुछ कहने का मौका नहीं मिला. आखिरकार अधूरे ही घर तक आये और अगले चार-पांच दिन में पूरे किये गये.<br />
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<table align="left" border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" style="width: 320px;"><tbody>
<tr><td><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYa_8rOI-E-7Q7ooo7ngtRi8Gs9-_K32fSLFq0djiBY-y1-fSmaPS9QnbMCcLCg_je14FdbgWalJ2wWekzftYr1w170aBgxEkEJO4oU6CIW30G_ac77V1Ug-w-EMN2bon1GAKQxTQvh2Gv/s1600-h/Betwa+River.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYa_8rOI-E-7Q7ooo7ngtRi8Gs9-_K32fSLFq0djiBY-y1-fSmaPS9QnbMCcLCg_je14FdbgWalJ2wWekzftYr1w170aBgxEkEJO4oU6CIW30G_ac77V1Ug-w-EMN2bon1GAKQxTQvh2Gv/s320/Betwa+River.jpg" /></a><br />
<div class="cap" style="color: #990000; text-align: center;">बेतवा नदी</div></div></td></tr>
</tbody></table>बेतवा के पुल से गुजरते हुए दिखा कि वर्षा से पानी की कुछ मात्रा नदी में आ गयी है. वर्षभर अन्यथा सूखी ही दिखती हैं अब देश की अधिकांश नदियाँ. ठीक समय पर ट्रेन गंतव्य तक आ पहूंची. स्टेशन आने से पन्द्रह मिनिट पहले से ही लोग उठकर दोनों गेटों के आगे दो कतारों में विभाजित होकर खड़े हो गये. इतनी भी क्या जल्दी रहती है?<br />
<br />
आखिरकार घर भी आ गया. साढ़े चौबीस घंटों की भोपाल यात्रा अपने मुकाम पर पहुंची.घर पहुंचते ही दोनों बिटियों ने हमारे बहाने से हमारे बैग का स्वागत किया और उसे खंगालने में जुट गयीं. पापा आ गये का शोर जल्दी ही मेरे लिये क्या लाये, मेरे लिये क्या लाये की आवाजों में दब गया. बीस-पचीस वर्ष बाद का समय फ़्लैश फ़ॉरवर्ड बनकर अचानक हमारी आँखों के सामने घूमने लगा. कोई बांगड़ू पूरी तन्मयता से मन लगाकर सुन रहा है, "पता है पापा जब भी कभी बाहर के टूर से लौटते थे, तो एक बैग तो हम लोगों के लिये तरह-तरह की चीज़ों से भरकर ही लाते थे."<br />
<br />
इतना भी पपियाना बिटिया? सच-सच कह देना कि जब देखो बस एक वही बात कहते थे. "बस जरा ये पोस्ट पूरी कर लूं, फ़िर सुनाता हूं ना एक नयी कहानी. ब्लॉगर हो गये थे ना."Unknownnoreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-47058707158373153522009-08-26T04:30:00.017+05:302009-08-26T09:15:07.733+05:30बोट क्लब, मल्होत्रा जी और १५ अगस्त पर डांस पे चांस (भोपाल यात्रा - ३)रात भर रुक-रुक कर हल्की फ़ुहार पड़ती रही. खिड़की से ठंडी हवा के मस्त मद्धम झोंके आकर तन को हिलोरते रहे और भोर की पहली किरण के साथ जब निद्रा देवी की शरण से बाहर आये तो विगत दिवस की यात्राओं की थकान छू हो चुकी थी. रात मोबाइल को ड्यूटी पर तैनात करके सोये थे कि प्रातः छैः तीस पर याद से जगा दिया जाये मगर उसे सेवा का अवसर ही नहीं मिला और छैः बजे स्वतः ही आँख खुल गयी. (वस्तुतः दोनों आँखें एक साथ ही खुल गयी थीं पर लिखना एकवचन में ही पड़ रहा है. कुछ मुहावरों ने सच्ची अभिव्यक्तियों का रास्ता रोक रखा है. :)<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgI6yU7Lo31CxEMgdFDsMh9G9p2bFmrZaKn_a-R7EP1i0999ViPP09KPrdsZcIGZBZ1WErJly5XdAagI4N9NsVtzIGOeo36QTI6bxo0yYuBeFinoCdlqdH89d7bOw3_7n1iyqp07NhT5XCt/s1600-h/Beautiful+plant+and+flower.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgI6yU7Lo31CxEMgdFDsMh9G9p2bFmrZaKn_a-R7EP1i0999ViPP09KPrdsZcIGZBZ1WErJly5XdAagI4N9NsVtzIGOeo36QTI6bxo0yYuBeFinoCdlqdH89d7bOw3_7n1iyqp07NhT5XCt/s320/Beautiful+plant+and+flower.jpg" /></a><span style="color: blue;"><b>१५ अगस्त, शनिवार, स्वतंत्रता दिवस<br />
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प्रातः ०७:०० बजे</b></span><br />
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आज का प्रोग्राम कुछ यूं था कि पहले एक परिचित के यहाँ पहुंचना था. उसके बाद सोचा था कि थोडा और शहर देख लेंगे. फ़िर दोपहर बाद २:४० की वापसी ट्रेन पकड़नी थी. सुबह ये भी ओवरकास्ट ही थी. आसमान में हल्के बादल थे जो शनैः-शनैः अपने और भी साथियों को इकट्ठा करते जा रहे थे. बारिश के आसार बनते दिख रहे थे. घर के बगीचे की ओर दृष्टि दौड़ाई तो कुछ मनोहर पौधों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्शायी. किस्म-किस्म के पुष्प सुसज्जित पौधे. कुछ चित्र लिये बिना रहा नहीं गया. अगले कुछ दिन पीसी के डेस्क्टॉप पर यही फ़ूल-पौधे विराजेंगे.<br />
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भाई साहब सुबह जल्दी ही ऑफ़िस के लिये निकल लिये थे. झंडावंदन वगैरह होगा. हम तैयार शैयार होकर घर के सामने के गलियारे में टहल रहे थे. तभी नजर आया कि सामने के बड़े से स्कूली मैदान में कुछ बच्चे एकत्र हो रहे हैं, पन्द्रह अगस्त मनाने के लिये. मनभावन दृश्य थे. छोटे-बड़े सभी प्रकार के नौनिहाल राष्ट्रीय पर्व पर बड़े जोश से भरे हुए नजर आ रहे थे. भांति-भांति के रंगों वाली टी-शर्ट्स में बच्चे, इनमें से कुछ अपने हाथों में छोटे-छोटे तिरंगे लिये हुए, ऊँचे स्वर में देशभक्ति गीत गा रहे थे. देख कर लग रहा था कि कार्यक्रम के लिये लम्बी तैयारी करवाई गयी है. मैडम लोग भी उसी उत्साह के साथ जुटी थीं. इन सब को देख कर हमने भी अपने अंदर ऊर्जा का संचार होते महसूस किया. इतने में लगभग ९ बजने आ गये थे.<br />
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<center><embed flashvars="host=picasaweb.google.com&captions=1&hl=en_US&feat=flashalbum&RGB=0x000000&feed=http%3A%2F%2Fpicasaweb.google.com%2Fdata%2Ffeed%2Fapi%2Fuser%2Fghobus%2Falbumid%2F5373195839918330801%3Falt%3Drss%26kind%3Dphoto%26authkey%3DGv1sRgCM2-8tvLu4fGTw%26hl%3Den_US" height="400" pluginspage="http://www.macromedia.com/go/getflashplayer" src="http://picasaweb.google.com/s/c/bin/slideshow.swf" type="application/x-shockwave-flash" width="600" /></embed></center><br />
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"मैने कहा, जैन साहब नहीं हैं तो आप ही उनकी हाजरी लगा दीजिये." पर हम स्कूली बच्चों के चित्र खींचने में व्यस्त थे, आवाज पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वही वाक्य जस का तस दुबारा उच्चारित हुआ, इस बार थोड़े ज्यादा डेसीबल के साथ. देखा तो एक बुजुर्ग से सज्जन हमीं को पुकार रहे थे. (जैन साहब, भाई साहब के मकान-मालिक हैं और उक्त दिवस पर शहर से बाहर थे). सामने खूबसूरत से पार्क में कॉलोनी वासियों का स्वतंत्रता दिवस पर मिलन समारोह आयोजित था. आमंत्रण पाकर हम भी बाखुशी शामिल हो लिये.<br />
<br />
एक लम्बे से डंडे में मोटी फ़ूल माला से ढंका और पतले से धागे से बंधा हुआ राष्ट्रीय ध्वज रखा था. आठ-दस कॉलोनीवासी बुजुर्ग और चार-पाँच बच्चे वहां पहले से मौजूद थे. सर्वप्रथम एक दुबले-पतले से सज्जन से हमारा नमस्कार, तत्पश्चात परिचय का आदान-प्रदान हुआ और उसके बाद बाकियों की भी हिम्मत खुल गयी. सवा नौ हो चुके थे. <a href="http://halchal.gyandutt.com/" target="_blank">ज्ञान जी</a> की भांति गुरु-गम्भीर से दिखने वाले एक सज्जन ने राय जाहिर की - "निर्धारित समय से पन्द्रह मिनिट ऊपर हो चुके हैं. मेरा ख्याल है अब कार्यक्रम प्रारम्भ कर देना चाहिये." दो - तीन लोगों ने तुरन्त अनुमोदन किया. हाल ही में अधेढा़वस्था से बुजुर्गियत के अहाते में दाखिला पाये एक सज्जन ने किसी चिड़चिड़े ब्लॉगर की भांति बड़बड़ाना शुरु कर दिया - "सब को अच्छे से जानकारी है. ऊपर से सर्कुलर भी घुमाया गया था. लेकिन लोग हैं कि आने को तैयार ही नहीं हैं. साल में दो बार ही मौका होता है, छब्बीस जनवरी और पन्द्रह अगस्त. लेकिन बिल्कुल मिलना-जुलना ही नहीं चाहते." कुछ ने हां में हां मिलाई और अन्य ने केवल हाथ-घड़ी की ओर निहार कर मौन सहमति की मुहर लगाई. एक कद्दावर व्यक्तित्व ने, जो कद-काठी से काफ़ी हद तक <a href="http://udantashtari.blogspot.com/" target="_blank">समीर जी</a> की तरह नजर आ रहे थे, एक कदम आगे जाकर सलाह दी, "आगे से होना ये चाहिये कि बिना किसी बुलावे के सभी को समय से उपस्थित होना चाहिये. चाहे सर्कुलर पहुंचे अथवा नहीं." एक बार फ़िर सभी सहमत थे.<br />
<br />
झंडे का डंडा जमीन में गाड़ दिया गया और झंडा गेंदे के सेहरे में मुंह ढांपे ऊपर की ओर उठ गया . सोसायटी के सबसे सीनियर सदस्य, मल्होत्रा जी को आमंत्रित किया गया कि वे आएँ और अपने कर-कमलों से धागा खींच कर झंडे को फ़हरायें. थोड़ी बहुत रस्मी ना-नुकुर के बाद बुजुर्गवार एक बार फ़िर तैयार हो गये. वे हौले-हौले झंडे की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक अतिउत्साही नौजवान ने इसे उनके प्रति अपनी श्रद्धा के प्रदर्शन का अच्छा अवसर समझ कर टिप्पणी छोड़ दी, "जब तक मल्होत्रा जी हम लोगों के बीच हैं, ये दायित्व तो उन्हीं का रहेगा. उसके बाद चाहे जो हो." अपनी जान में तो उसने मल्होत्रा जी का मान ही बढा़या था, पर मल्होत्रा जी पर इसका असर ये हुआ कि उनकी रीढ़ की हड्डी में अचानक दृढ़ता आ गयी और चाल में तेजी. किसी नवयुवक की सी चपलता से उन्होने रस्सी को खींच कर झंडे को हवा में फ़ड़फ़ड़ाने के लिये आजाद कर दिया. सब लोगों ने राष्ट्रगान शुरु कर दिया. बच्चों का स्वर सबसे ऊँचा था.<br />
<br />
इस बीच पार्क की चारदीवारी फ़ांद-फ़ांद कर और भी कुछ लोग मजलिस में शरीक हो लिये थे. दुबले-पतले सज्जन ने, जिनसे हमारा सबसे पहले दुआ-सलाम हुआ था, और जो सबसे बड़ी गर्मजोशी से मिल रहे थे, झंडे के सामने जगह बनाई और बिना माइक के भी सभी को सुनाई देने योग्य बुलंद आवाज में कुछ कहना शुरु किया. ज्यादा लोग उनकी बातों में इण्ट्रेस्टेड नहीं लग रहे थे. इसे भांप कर उन्होंने औरों को भी बोलने का मौका देना शुरु किया. एक-एक कर चार-पाँच लोगों के नाम उन्होंने पुकारे. कुछ आगे आये, बाकियों ने जगह पर बैठे-बैठे सिर्फ़ हाथ जोड़ लिये. इसके बाद ईनाम का लालच देकर बच्चों को पुकारा गया और उनसे गीत, कविता आदि सुनाने को कहा गया. एक ने 'झंडा ऊँचा रहे हमारा' सुनाया, दूसरे ने 'वन्दे मातरम'. फ़िर फ़िल्मी देशभक्ति गीतों का नम्बर आया. 'भारत हमको जान से प्यारा है'. जल्दी ही स्टॉक खत्म हो गया. एक छोटी बच्ची ने, जो काफ़ी शरमा रही थी, मासूमियत से पूछा, "अंकल, 'डांस पे चांस मार ले' सुना सकती हूं?" स्वीकृति मिलते ही इंडियन आयडल स्टाइल में झूम-झूम कर गाना शुरु किया. इसके तुरंत बाद सभा समाप्त कर दी गयी.<br />
<br />
हमें काफ़ी दूर जाना था. एक्टिवा उठाई और निकल पड़े. टू व्हीलर पर मौसम का पूरा आनंद लेने का इरादा था. मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव टेक्नोलॉजी (MANIT) के सामने से निकले तो फ़िर कुछ यादें तरोताजा हो आयीं. १९९२ में कॉलेज एडमिशन के समय काउंसलिंग हेतु यहां आना हुआ था. तब इसका नाम मौलाना आजाद कॉलेज ऑव टेक्नोलॉजी (MACT) होता था. मेन ऍन्ट्रेंस का गेट बड़ा शानदार बना दिया गया है अब तो. शहर का विस्तार होता जा रहा है. कोलार रोड पर दोनों ओर बड़ी-बड़ी इमारतें उठ आयी हैं. रिलायंस फ़्रेश का भी अच्छा स्टोर है. कुछ देर वहीं खरीदारी की.<br />
<span style="color: blue;"><b><br />
१५ अगस्त, शनिवार<br />
<br />
दोपहर ०१:०० बजे</b></span><br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3DZska6ICQV7XlTaIyqBYpQ-Xk-d9XLi-iIWa-46GDRqs2nobUsRcvCIQnWbc0WYoGrPfJe8j9ExoOoyWHJ6NiaKBmoss9cJqdnkGcJYRWxCExQJvBzJ5E_iaCqWDYQXN2MNbtNfFI-nZ/s1600-h/Boat+Club+Bhopal.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3DZska6ICQV7XlTaIyqBYpQ-Xk-d9XLi-iIWa-46GDRqs2nobUsRcvCIQnWbc0WYoGrPfJe8j9ExoOoyWHJ6NiaKBmoss9cJqdnkGcJYRWxCExQJvBzJ5E_iaCqWDYQXN2MNbtNfFI-nZ/s320/Boat+Club+Bhopal.jpg" /></a>परिचित के यहां से फ़ारिग होकर निकलते हुए यही वक्त हो चला था. पौने तीन की ट्रेन पकड़नी थी. पर लौटते हुए जब वीआईपी रोड से निकले तो एक नजर बोट-क्लब पर डाले बिना लौटने का मन नहीं हुआ. जा ही पहुंचे. क्या शानदार मौसम था, क्या अद्भुत नजारा. छुट्टी के दिन जनसैलाब उमढ़ा था या रोज का यही दृश्य होता है, पता नहीं. झील में पानी का स्तर काफ़ी ज्यादा था. बहुत सारे लोग परिवार सहित बोटिंग का आनन्द ले रहे थे. अभी भी बादल घिरे हुए थे और लग रहा था कि कभी भी बूंदा-बांदी प्रारम्भ हो सकती है. कुछ देर वहां बिताकर वापसी की राह पकड़ी. घर पहुंचते-पहुंचते दो बजने को आ गये थे. स्टेशन के लिये तुरंत निकलना होगा. लेकिन क्या पता था कि स्टेशन तक का सफ़र कितना लम्बा और मुश्किल होने वाला था.<br />
<span style="color: blue;">(तीसरा भाग समाप्त, एक और बाकी)</span><br />
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<span style="font-size: x-small;">जाहिर सी बात है कि नाम बदले हुए हैं.</span>Unknownnoreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-65934646048321381502009-08-24T04:30:00.005+05:302009-08-24T13:20:43.545+05:30फ़ा़टकचंद और झंडूलाल (भोपाल यात्रा - २)<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinXRo8T8d1Ni_qOmG6LGxc6m9lznxiASbAHFj_vuF2rAjGbITdn-5XSZdaMUXzyj_eF-GIr9tgOv_ZkLlUlmJWq94XZ1R_DWPICCGG8dd_6qIUL64x2WUynnJCzaDbITD6nS48ApwQ-fri/s1600-h/Flag+Seller.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEinXRo8T8d1Ni_qOmG6LGxc6m9lznxiASbAHFj_vuF2rAjGbITdn-5XSZdaMUXzyj_eF-GIr9tgOv_ZkLlUlmJWq94XZ1R_DWPICCGG8dd_6qIUL64x2WUynnJCzaDbITD6nS48ApwQ-fri/s320/Flag+Seller.jpg" /></a></div><font color="blue"><b>१४ अगस्त, शुक्रवार,</b><br />
<br />
<b>दोपहर ०२:२० बजे</b></font><br />
<br />
'लगभग' सही समय पर चली ट्रेन 'एकदम' सही समय पर भोपाल स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर दाखिल हुई. ड्राइवर ने इस यात्रा में अंतिम बार ब्रेक का उपयोग किया और रेलगाड़ी ने प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर अपना पड़ाव डाल दिया. इस बार घर से रवाना होते समय मन में शहर की जो कल्पना करके चले थे, प्लेटफ़ॉर्म पर पहला कदम टिकाते ही एक झटके के साथ सब हवा हो गयी. सोचा तो था कि शहर में फ़ेस मास्क वाले कई चेहरे नजर आयेंगे. पर आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ कर देखने पर भी एक भी मास्कमैन नजर नहीं आया. स्टेशन जैसे क्राउडेड प्लेस पर भी सब कुछ एकदम सामान्य दिखा, कहीं कोई पैनिक नहीं. न्यूज़ चैनलों के वे रिपोर्टर्स याद आये जो मास्क से मुंह ढंके चीख-चीख कर अपने दर्शकों को डरा रहे थे.<br />
<br />
भाई साहब मय वाहन मौजूद थे. स्टेशन बिल्डिंग से बाहर निकलते ही बारिश की हल्की फ़ुहार ने स्वागत किया. पीछे एक बरसात को तरसते शहर को छोड़कर यहां पहुंचे हमारे जैसे प्राणी को तो ये अमृत के समान लगा. मूड रोमांटिक हो आया और महीनों से सोया हुआ अंतर का 'ब्लॉगर' भी आँखें मलकर कुनमुनाता हुआ उठ बैठा. बारिश में भीगते हुए ही आस-पास के चार-पाँच फ़ोटो खींच लिये गये. मगर ये ध्यान आते ही कि चौबीस घंटे के बसेरे के हिसाब से सीमित संख्या में ही वस्त्रों का प्रबंध किया गया है, हमने जल्दी से खुद को कार के हवाले किया और कार पार्किंगमैन के इशारों को समझते हुए हौले-हौले पार्किंग-लॉट से बाहर आकर घर की ओर दौड़ पड़ी.<br />
<br />
भोपाल में इस वर्ष ठीक-ठाक ही बारिश हुई है. दो महीने पहले की तुलना में इस बार बड़े ताल का जल-स्तर काफ़ी बढ़ा हुआ नोट किया. शहर में हरियाली भी काफ़ी दिखी. वैसे तो बारिश कहीं की भी हो उसका अपना आनंद होता है, पर भोपाली बारिश से अपनी कुछ पुरानी यादें भी जुड़ी हैं. मुझे हमेशा याद आते हैं १५-१६ वर्ष पहले के वो दिन जब यहाँ के ऊंचे-नीचे रास्तों पर तेज बारिश में आधा रेनकोट पहनकर बाइक पर घूमा करते थे. सौंधी मिट्टी की महक के बीच ईदगाह हिल्स की चढाइयों पर बेफ़िक्री से विचरते कितनी ही यादगार शामें गुजरी हैं. इस बार केवल औरों को बारिश का मजा लेते देखते रहे और तस्वीरें लेते रहे.<br />
<br />
<center><embed type="application/x-shockwave-flash" src="http://picasaweb.google.com/s/c/bin/slideshow.swf" width="600" height="400" flashvars="host=picasaweb.google.com&captions=1&hl=en_US&feat=flashalbum&RGB=0x000000&feed=http%3A%2F%2Fpicasaweb.google.com%2Fdata%2Ffeed%2Fapi%2Fuser%2Fghobus%2Falbumid%2F5373190094538558737%3Falt%3Drss%26kind%3Dphoto%26authkey%3DGv1sRgCNewq9qk4rWilwE%26hl%3Den_US" pluginspage="http://www.macromedia.com/go/getflashplayer"></embed></center><br />
<br />
मौसम लगातार बेहद खुश़गवार बना हुआ था. घर पहुंचते ही कार्यक्रम बनाया कि क्यों ना इस आदर्श घुमाई योग्य वातावरण को उचित सम्मान देते हुए मौसम के निमंत्रण को स्वीकार किया जाए और शहर का एक चक्कर लगा लिया जाये. आनन-फ़ानन में तैयारी हुई और सभी लोग कार में लद लिये. जन्माष्टमी का दिन, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या. काफ़ी उल्लासमय माहौल था नगर का. <br />
<br />
सरकारी इमारतें सज-धज कर तैयार थीं तो मन्दिरों में भी खासी संख्या में श्रद्धालु दिखे. एक विशाल सरकारी भवन के सामने से गुजरते हुए चमचमाहट देखकर हमने कैमरा चालू करने का उपक्रम किया. भाई साहब से चेतावनी मिली कि सुरक्षा कारणों से यहाँ का फ़ोटो लेने पर पाबंदी है. रोका जा सकता है. एक जिम्मेदार नागरिक के कर्त्तव्य को समझते हुए हम रुकने को हुए तो अंदर बैठे 'ब्लॉगर' ने फ़टकार लगाई और धिक्कार मचाई. एक एक्स्क्लूसिव शॉट के लिये उकसाया गया. यार एक फ़ोटो ले लोगे तो कोई टैररिस्ट तो नहीं हो जाओगे. संघर्ष कुछ सेकेन्ड्स ही चला, ब्लॉगर विजयी रहा.<br />
<br />
एयरपोर्ट रोड से होते हुए राजीव गांधी प्रौद्यौगिकी विश्वविद्यालय के सामने से भी गुजरना हुआ. यहीं पर भेड़-बकरियों का एक रेवड़ अचानक सड़क पर सामने आ गया और पूरा रास्ता रोक कर चलने लगा. पानी भरे गड्ढों से सफ़लतापूर्वक बचते हुए भी यथासंभव द्रुत गति को बरकरार रखी हुई कार इस नये अवरोध का सामना होते ही मंद पड़ गयी और कुदरत के नियम का सहज और आसान भाव से स्पष्टीकरण हुआ - "प्रौद्योगिकी विकास की दर किसी मानव समाज की मूलभूत स्थिति के समानुपाती होती है." आगे का इलाका कुछ सब-अर्बन टाइप का था. हर सौ - डेढ़ सौ मीटर पर इलाके की नाम पट्टिकाएँ बदल जाती थीं. सो, नाम-वाम याद नहीं रख पाये.<br />
<br />
गाड़ी की स्टेयरिंग भाई-साहब संभाले थे और अपन सैर का पूरा आनंद ले रहे थे. अचानक स्पीड में तेजी आ गयी. क्या हुआ? सामने सड़क पर एक रेल्वे-क्रॉसिंग था जिसका गेट बंद होने का सिग्नल दे रहा था. कार तेज भगाई गयी पर व्यर्थ. पहुंचते-पहुंचते फ़ाटक बंद. दोनों ओर काफ़ी सारे वाहन जमा थे. सामने वाली ओर सबसे आगे एक मिनी बस थी, जो यात्रियों से खचाखच भरी थी. उसका कन्डक्टर भागता हुआ फ़ाटक के संतरी के पास पहुंचा और उसे कुछ दक्षिणा थमाई. देखते ही देखते गेट खुलने लगा और वाहन आगे बढ़ने लगे. हम लोग भी निकल लिये. एक नयी बात पता चली कि ये श्रीमान फ़ाटकचंद जी कारीगर आदमी हैं. ये सड़क मुख्य भोपाल को इस इलाके से जोड़ती है और दिनभर व्यस्त रहती है. काफ़ी सारे टेम्पो, ऑटो, मिनी बस वगैरह पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्हीकल यहां से निकलते हैं. ये जनाब गाड़ी आने के बहुत पहले ही गेट को बंद कर देते हैं. बस वाले जल्दी में रहते हैं. जितने ज्यादा फ़ेरे लगायेंगे, उतनी ज्यादा आमदनी. यहां खड़े रहना पड़े तो उन्हें नुक्सान होता है. तो अगर जल्द निकलने के लिये दस-बीस रुपये फ़ाटकचंद जी को भेंट चढ़ाने पड़ते हैं. क्या कमाल के लोग हैं इस देश में. कहां-कहां से आमदनी के जरिये तलाश लेते हैं. <br />
<br />
बिड़ला मन्दिर के द्वार के सामने लम्बी दूरी तक दोनों ओर फ़ूल-पत्री और खिलौनों की कई छोटी-बड़ी दुकानें सजी थीं जहाँ तरह-तरह के सजावटी आईटम लटक रहे थे. इनमें अधिकांशतः अनियमित प्रकार की दुकानें थीं जिन्हें टीन-टपरे आदि से केवल अवसर विशेष के लिये तैयार किया गया था. दुकानदार लोग संतुष्ट भाव से गद्दियों पर जमे सैलिंग डिपार्टमेंट संभाले थे तो उनकी अर्द्धांगिनियां दुकानों के पीछे ही जमीन पर कारखाने खोले हुए थीं जिनमें फ़ूलों को मालाओं में परिवर्तित करके वेल्यू एडीशन किया जा रहा था. कारखाने से रिटेल तक की सप्लाई का दायित्व उनके बच्चे संभाले थे. भारी रेल-पेल मची थी.<br />
<br />
न्यू मार्केट तक पहुंचते हुए काफ़ी देर हो चुकी थी. थोड़ी-बहुत देर पैदल घूमा गया और फ़िर घर वापसी. यहीं पर लाल बत्ती पर एक दस-बारह साल का लड़का कुछ तिरंगे लिये हुए पास आ गया और खरीदने के लिये अनुरोध करने लगा. उसे बताया गया कि सुबह ही झंडे खरीद लिये गये हैं. लड़का स्मार्ट था. बिना समय गंवाए फ़ुर्ती से दूसरी कार की ओर लपका. दो-तीन कारों पर घूमकर कुछ ही पलों में फ़िर आ गया. कहने लगा एक मुझसे भी खरीद लीजिए ना. एक झंडा और खरीद लिया गया. मैंने उसका एक फ़ोटो लिया. बढ़िया सा पोज़ बनाकर उसने खिंचवाया और तुरंत बोला, "दिखाओ कैसा आया". खुद को स्क्रीन पर देखकर खुश हो लिया और हवा में उछलते हुए स्वर-लहरियाँ बिखेरने लगा - "ओए-ओए-ओए-ओए". गाड़ी आगे बढ़ ली थी कि उसके किसी साथी की आवाज़ सुनाई दी, "एक मेरा भी".<br />
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जन्माष्टमी की रात थी. देर तक जागना हुआ. ज्यादातर समय टीवी चैनल सर्फ़ करते हुए गुजरा. न्यूज़ चैनल्स देश भर के मंदिरों से सीधा प्रसारण दिखा रहे थे. सुबह एक परिचित के यहां मिलने जाना था. जल्दी उठना होगा. साढ़े छैः बजे का अलार्म लगाया और एक बजते-बजते बिस्तर के हवाले हो लिये.<br />
<font color="blue">(दूसरा भाग समाप्त, <strike>एक</strike> दो और बाकी)</font>Unknownnoreply@blogger.com13tag:blogger.com,1999:blog-976803987974163848.post-83280145537913811512009-08-19T04:30:00.008+05:302009-08-19T19:59:32.668+05:30क्या घोस्ट बस्टर को "सूरमा भोपाली" सम्मान नहीं मिलना चाहिये?<div style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTaUGwKIHJZkoFh0x7XFO2JiIkU6NwpnrIVWe7Ub6lSSYlHGqH2rSOfMSzSTnKHlxeJEnbFWSWv0VclKpswL5wjpZYf8-0lBco5NVXva5aUHs08Mw-tWAD2VtTYH5OArwcl68FIoEqm4FC/s1600-h/Train+at+Jhansi+Plateform.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiTaUGwKIHJZkoFh0x7XFO2JiIkU6NwpnrIVWe7Ub6lSSYlHGqH2rSOfMSzSTnKHlxeJEnbFWSWv0VclKpswL5wjpZYf8-0lBco5NVXva5aUHs08Mw-tWAD2VtTYH5OArwcl68FIoEqm4FC/s320/Train+at+Jhansi+Plateform.jpg" /></a><b style="background-color: #ffd966;">ऊँ श्री फ़ुरसतियाय नमः</b></div><br />
गई जून में जब हफ़्ते भर की इन्दौर, उज्जैन और भोपाल की यात्रा से लौटे थे तो मनभर मंसूबे बांधे थे कि इस बार एक यात्रा विवरण लिखकर ब्लॉग पर चिपका ही देंगे. मगर जैसा कि हर उच्च कोटि के विचार के साथ होता आया है, क्रियान्वयन की राह में सतत बाधाएँ आती चली गयीं और लेख टलता रहा. उस यात्रा पर पोस्ट ठेलने का विचार अभी पूरी तरह ड्रॉप भी नहीं हो पाया था कि इस बीच एक बार फ़िर भोपाल का फ़ेरा लग गया. हालांकि इस बार का दौरा कुछ छोटा रहा, केवल साढ़े चौबीस घंटे का, लेकिन पोस्ट ठेलने लायक पर्याप्त अनुभव बटोर लिये गये. इससे पहले कि अभी दिमाग में दंड-बैठक करते ये अनुभव इधर-उधर रस्ता देखकर कहीं भाग निकलें और पोस्ट के लिये छटपटाते विचार का फ़िर पहले जैसा हश्र हो ले, कुछ कर ही गुजरने का मन बनाया है. सो, अब हमने एक मग सामने टेबल पर और दो मग बंद थर्मस में कॉफ़ी भरकर पीसी के सम्मुख आसन जमा लिया है. आप झेलने-भुगतने की तैयारी कीजिये.<br />
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यात्रा-विवरण सुनाने वालों की बात करें तो अपने ज़हन में पहला अक्स उभरता है <a href="http://hindini.com/fursatiya">फ़ुरसतिया जी </a>का. तो लाज़मी है कि कुछ भी लिखने से पहले प्रथम सुमिरन उन्हें ही किया जाये, किया भी है. वैसे इसमें एक लाभ की आशा और भी है. पूरी सम्भावना दिख रही है कि पोस्ट लम्बी रहेंगी. ऐसे में पाठक अगर धिक्कारेंगे तो पोस्ट की लम्बाई का दोष फ़ुरसतिया जी को किये प्रणाम पर डालने की सुविधा रहेगी. इसी आशा से...<br />
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<b style="color: #cc0000;">-------------------------</b><br />
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भाई साहब का पहला संदेश कोई पन्द्रह-बीस दिन पहले मिला था. धीरे-धीरे संदेश आदेशों का और आदेश चेतावनियों का रूप लेते रहे लेकिन हमारा बलवान आलस्य इन सभी क्रमश: अधिक गम्भीर होते जाते बुलावों पर भारी पड़ता रहा. ये सिलसिला थमा ८ अगस्त, २००९, शनिवार की उस अन्यथा खुशनुमा संध्या को जब अंतत: आशंका के अनुरूप, चेतावनियों ने हड़काई का आकार ले लिया और अंतिम प्रहार के रूप में ब्रह्मास्त्र दाग दिया गया, "तुम्हारी बहानेबाजियों का कोई अंत नहीं, एक जरा से काम में दो हफ़्ते लगा दिये और आगे भी कोई कुछ करोगे इसकी सम्भावना नहीं दिखती. तुम्हारे भरोसे रहना बेकार है, कल मैं स्वयं वहां पहुंच रहा हूं." <br />
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पानी गर्दन तक आ गया था. अब तो आलस्य की चादर से पाँव बाहर निकालने ही होंगे. एक बार फ़िर से तीन-चार दिन की मोहलत के लिये आवेदन किया गया, जो आशा के विपरीत तुरन्त स्वीकृत भी हो गया. या तो इस बार मेरे स्वर में निहित गम्भीरता को भांप गये होंगे या फ़िर एक संभावना ये भी कि श्रीमान जी खुद भी यूं ही खाली-पीली ब्लफ़ मार रहे थे. खैर, अब इस सब के बारे में सोचने विचारने का समय नहीं था. इस बार वाकई हिलने-डुलने का समय था. तय रहा कि १४ अगस्त को भोपाल पहुंचूंगा और १५ को वापसी. दोनों दिन छुट्टी के थे, पहले दिन जन्माष्टमी और दूसरे दिन राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता दिवस. तुरत-फ़ुरत रिज़र्वेशन करवाया गया और खुद को एक नयी चिन्ता के हवाले किया गया.<br />
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लेकिन ये चिन्ता हमारे नहीं बल्कि श्रीमती जी के सर पर अवतरित हुई. सुना है कि भोपाल में भी स्वाइन-फ़्लू के कुछ केस निकले हैं. स्वास्थ्य मंत्री आजाद गुलाम साहब एक ही रामबाण उपाय सुझा रहे हैं कि जहाँ तक हो सके भीड़-भाड़ वाली जगहों से दूर रहें. रेलवे स्टेशन्स पर तो बड़ी भीड़ होगी. कहीं कुछ कैच ना कर बैठो. ट्रेन से जाना जरूरी है क्या? क्या टैक्सी करके नहीं जा सकते? लेकिन बाय रोड सफ़र करना अपने को कभी पसंद नहीं आया, खास कर अगर डेढ़-दो घंटे से अधिक का सफ़र हो तो. तो हम भी अड़े रहे. अंत में कई उपदेशों-प्रवचनों के बाद ट्रेन से जाने पर रजामंदी की मुहर लगा दी गयी. एहतियातों की सूची लोकल स्तर पर (घर में ही) तैयार की गयी पर चार-पांच डिस्पोसेबल फ़ेस-मास्क बाज़ार से लाकर थमाए गये.<br />
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१३ अगस्त की शाम को यात्रा में आवश्यक सामान भी एक एयर बैग में डालकर रख दिया गया. हमने <a href="http://drparveenchopra.blogspot.com/">डॉ. प्रवीण चोपड़ा जी के ब्लॉग</a> से <a href="http://drparveenchopra.blogspot.com/2009/08/blog-post_15.html">स्वाइन-फ़्लू सम्बन्धित कुछ आलेख</a> श्रीमती जी को पढ़ाये और उनके भय को कुछ विश्वस्त और अच्छी जानकारियों द्वारा कम करने की चेष्टा की. रात को देर तक हिन्दी के ब्लॉग्स पढ़ते रहे. पता नहीं फ़िर मौका मिले ना मिले. :-). साथ ही अपनी शूरवीरता को भी आप नमन करने का मन होता रहा. दुनिया फ़्लू प्रभावित इलाकों से दूर भागती है, एक हम हैं जो गैर प्रभावित क्षेत्र से प्रभावित की ओर सब कुछ जानते-बूझते हुए भी गमनोत्सुक हैं. इन भोपालियों में अगर जरा भी वीरता की पहचान और सम्मान हुआ तो जरूर किसी उपाधी से नवाजेंगे. शायद 'सूरमा भोपाली' बतर्ज 'ऑर्डर ऑव फ़्रांस'.<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCMhgfrAJ3o1pZBfyeBxMnIhhbN25tl2rqPg2a_e7Wv-N381v0jDz-KB9A1r_C6zJkB1uhPvAPOvrpsnIr2piz6YC8Vqvf-wTtoh4dKItqtaVd5nKTvQoL3-qTt1vfKymnufOIO-dyGE5Y/s1600-h/Krishna.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCMhgfrAJ3o1pZBfyeBxMnIhhbN25tl2rqPg2a_e7Wv-N381v0jDz-KB9A1r_C6zJkB1uhPvAPOvrpsnIr2piz6YC8Vqvf-wTtoh4dKItqtaVd5nKTvQoL3-qTt1vfKymnufOIO-dyGE5Y/s320/Krishna.jpg" /></a><b>१४ अगस्त, शुक्रवार, जन्माष्टमी<br />
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प्रातः ०८:०० बजे</b><br />
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चार-पांच मिनिट फ़ोन पर रेलवे इन्क्वायरी से मत्था फ़ोड़ी में गुजारे. अन्य दिन शताब्दी का नम्बर २००२ रहता है पर शुक्रवार के दिन ये '२००२ए' नम्बर से चलती है और समय भी कुछ अलग रहता है. मैनुअल इन्क्वायरी पर कोई रिस्पांस नहीं था, ऑटोमैटिक वाला गाड़ी नम्बर पूछ रहा था. अब ये समझना मुश्किल कि बीएसएनएल के लैंडलाइन फ़ोन से २००२ का पुछल्ला 'ए' कैसे डायल करें. अंत में हार कर रिसीवर पटका और नियत समय पर स्टेशन की ओर रवाना हो गये.<br />
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गाड़ी लगभग समय पर ही थी. अन्य यात्रियों के साथ हमारा भी सफ़ल लदान हुआ और छुक-छुकिया सफ़र की शुरुआत हो गयी. दो मिनिट के बाद ही बगल की सीट पर विराजमान सज्जन की ओर से सीटों के एक्स्चेंज का अनुरोध, नहीं-नहीं, ऑफ़र आया जिसे हमने क्षण भर भी गंवाये बिना स्वीकार कर लिया. इस तरह के किसी भी सहयोग के लिये हम आम तौर पर हमेशा ही तैयार रहते हैं. यदि ये सज्जन साढ़े छै: फ़ुट के ना भी होते और कमर में पुलिसियों वाला सर्विस रिवॉल्वर ना भी खोंसे होते तो भी इस निर्णय में हमें ना तो कोई ज्यादा वक्त लगने वाला था और ना ही इसका स्वरूप दूसरा होता, आप यकीन रखिये. तो सीटों की अदला-बदली हुई. चार दिन से जिस टिकिट को बारम्बार निहार कर कोच नम्बर और सीट नम्बर याद करने का काम चल रहा था, वह सीट दो मिनिट में पराई हो गयी. उनपर इंस्पेक्टर साहब की माताजी और श्रीमती जी काबिज हो गयीं. "सीट-सीट पर लिखा है जाने वाले का नाम". <br />
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तभी अचानक इंस्पेक्टर साहब के मंहगे से (लगने वाले) मोबाइल से सस्ती सी धुन फ़ूट पड़ी. पूरा मुखड़ा सुन लेने के बाद उन्होंने कॉल रिसीव करने का मन बनाया. बोले, "आज रात की गाड़ी से भोपाल के लिये निकलूंगा, कल सुबह आपसे मुलाकात हो पायेगी." हम थोड़े भौंचक्के से हुए और उनके मुख की ओर निहारने की प्रबल इच्छा ने मन में जन्म लिया. लेकिन तभी उनकी रोबदार कम घुमावदार मूंछें याद आ गयीं और हमने जबरन गर्दन को बाहर खिड़की की ओर मोड़ दिया. मरोड़ दी जाये उससे अच्छा कि मोड़ ली जाये. <br />
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ऐसी ही कुछ और बातों के बाद मोबाइल बंद कर दिया गया. मगर उनकी मोबाइल शांति थोड़ी ही देर कायम रह सकी. फ़िर बज उठा. इस बार किसी को आश्वासन दे रहे थे, "मैं अभी डीआईजी साहब से बात करता हूं. आप जरा पाँच मिनिट से मुझे फ़िर से काल करें". फ़ोन कट हुआ. दस मिनिट पूर्ण शांति, फ़िर वही कॉलर. इस बार बोले, " मेरी बात हो गयी है. आपका पूरा मामला मैंने उन्हें समझा दिया है. आप निश्चिन्त रहिये." हम फ़िर चकित. फ़िर खिड़की की ओर.<br />
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अगली सीट पर नजर गयी. दो बुजुर्ग आजू-बाजू बैठे थे. एक कुछ कहे जा रहे थे, दूसरे सुनने का अभिनय करते हुए सर हिला रहे थे मगर सर घुसाये थे "दैनिक भास्कर" में. अखबार की ओट से उनके सर के कुछ खड़े हुए बाल भर नजर आ रहे थे जो सर से जुड़े होने की वजह से उसी गति से उठक-बैठक कर रहे थे और जिनकी डोलनावस्था पहले सज्जन को अपनी बोलनावस्था जारी रखने का संकेत दे रही थी. "मैंने तो कह दिया अपने बेटे से, देखो अगर एजुकेशन में ही रहना है तो पीएचडी जरूर कर डालो. उसके बिना आगे बढ़ना मुश्किल है" <br />
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"हूं-हूं-हूं".<br />
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पीछे की साइड वाली सीटों पर नजारा कुछ युवा था. दो जोशीले नौजवान, उम्र कोई बाईस-चौबीस के लगभग, किसी निहायत ही जरूरी लगने वाली चर्चा में डूबे थे. दोनों बोलते कम थे, हंसते ज्यादा थे. एक बात बोलते और दो बार हंसते. मुझे ज्योति पाराशर और रजनी इसरानी की याद आई जो कक्षा पाँचवी में मेरी सहपाठिनियाँ हुआ करती थीं. दोनों दिन भर ऐसे ही पास बैठी खी-खी करती रहती थीं और अगर पूछो कि क्या बात है तो कुछ नहीं. अरे भाई अगर कुछ नहीं तो फ़िर ये संगीतमय दंत प्रदर्शनी क्यों? एक बार मुझे शक हुआ था कि हो ना हो ये मुझे ही टार्गेट करके आपस में कुछ बोलती हैं. क्या बोलती हैं? उगलवाने की मासूम सी कोशिश में कुछ ऐसा कह दिया था जिसके जवाब में रजनी ने बिना कोई चेतावनी के सीधे कक्षा अध्यापिका से शिकायत कर दी थी. मामले की गंभीरता आप इससे समझिये कि कक्षा अध्यापिका महोदया ने मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि दौड़ी गयीं प्रधान अध्यापिका के कक्ष की ओर. थोड़ी देर में दो चपरासियों को साथ लिये प्रधान अध्यापिका की डरावनी सी आकृति प्रकट हुई और मुजरिम का मुकदमा भरी कक्षा में ही चालू हुआ. पूरी कक्षा की गवाही मेरे खिलाफ़ गई. लेकिन साहस और हौंसले की तब उस उम्र में भी अपने में कोई कमी नहीं थी. डांट-फ़टकार से लेकर मार-पिटाई तक सब मुस्कुराते हुए झेल गये, लेकिन टसुए बहाए तो तभी जब घरवालों को बुलवाने और स्कूल से निकाल बाहर करने की धमकी मिली.<br />
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उफ़्फ़... बात कहाँ से कहाँ निकल गयी. मगर क्या कीजिये, ट्रेन के लम्बे सफ़र में फ़ालतू बैठा इंसान करे भी तो क्या? थोड़ा सा नॉस्टेल्जिक तो हुआ ही जा सकता है. हम भी हुए. पर अब लौटते हैं. तो दोनों नौजवान लगे थे बातों में. <br />
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"तूने कोई नई फ़िल्म देखी क्या?"<br />
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"एक वो देखी थी डेल्ही सिक्स, हा-हा, हा-हा. क्या फ़िल्म थी यार."<br />
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"अरे क्या बात है उसकी तो. मुझे तो ऐसी चुलबुली फ़िल्मों में बड़ा मजा आता है. ही-ही, ही-ही"<br />
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"मुझे तो रिशी कपूर का कैरेक्टर बड़ा पसंद आया. क्या बोलता है अभिषेक को... एक लड़की पसंद की थी मैंने. उसे भी साला तेरा बाप भगा कर ले गया. हे-हे-हे, हे-हे-हे. क्या मस्त डायलॉग थे यार."<br />
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ऐसी पकाऊ फ़िल्म की ऐसी तारीफ़. कुछ और भी फ़िल्मों के बारे में बतियाते रहे दोनों, जो अपनी जानकारी के दायरे से बाहर थीं. लिहाजा कुछ समझ नहीं आया. अच्छा ही रहा.<br />
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इस बार ट्रेन में खान-पान के स्तर में जरूर कुछ सुधार दिखायी दिया. सर्विस अच्छी थी और खाना भी. अटेंडर बार-बार आकर पूछता रहा, और कुछ लेंगे सर? अंत में लंच के बाद जब प्लेट में सौंफ़ मिश्री लेकर आया तो लोगों की जेब झड़ाई शुरू हुई. मन में विचार आया कि ये किस बात की उगाही? क्या सरकारी मुलाजिमों को इस तरह का नाजायज काम शोभा देता है? लेकिन प्रत्यक्षतः कुछ कहने वाला माहौल नहीं था. इंस्पेक्टर साहब की श्रीमती जी शान से पचास का नोट थमा चुकी थीं. हमने भी लजाते हुए बिना नजरें मिलाए केवल बीस रुपये टिकाये और मुक्ति पाई.<br />
<span style="color: blue;">(पहला भाग समाप्त, दो और बाकी)</span>Unknownnoreply@blogger.com13