पुस्तकों से अपना पुराना अनुराग रहा है. हालांकि अब कुछ तो समयाभाव और कुछ रुचियों के डायवर्सिफिकेशन के चलते पढ़ना काफ़ी कम हो गया है. एक समय था जब दिन भर में दो नॉवेल्स आसानी से निपटा डालते थे. और अब हाल ये कि दो हफ्ते में एक भी पूरा कर लें तो बड़ी बात. पर पिछले माह एक दुकान पर कुछ पुरानी पुस्तकों पर नजर पडी तो वहीं ठहर गयी. अमृता प्रीतम, कृष्ण चन्दर, गुरुदत्त, यशपाल, आचार्य चतुरसेन, जैनेन्द्र कुमार, अमृतलाल नागर जैसे बड़े नाम मौजूद थे. अधिकांश टाइटल अपने पढ़े हुए भी नहीं थे और नयी किताबों की दुकानों पर दीखते भी नहीं थे. किताबों की हालत देखकर अंदाज यही होता था जैसे किसी ने लंबे समय तक जतन से (बस) सहेजे रखने के बाद उदास मन से इन्हें विदाई दे दी हो. १९६० से लेकर १९७० के दरम्यान प्रकाशित इन किताबों में से ज्यादातर तो शायद कभी खोल कर पढी भी नहीं गयी थीं.
छपी हुई कीमत एक रुपए से छः रुपये के बीच थी. मन ही मन हिसाब लगाया, अगर दस रुपए की एक कहता है तो आठ - दस छाँट लेंगे. और अगर आठ रुपए तक बोले तो चार-पाँच और बढ़ा लेंगे. दाम पूछे तो बोला चार रुपए की एक. ये तो आलू और प्याज के दामों से भी कम हैं. बस और कुछ सोचने को बाकी नहीं था. जल्दी से कहा सारी निकाल दो, कुल पचासेक किताबें होंगी. दाम चुकाए और सीधे घर.
लंबे समय तक का जुगाड़ हो गया है. देखें कब तक ख़त्म कर पाते हैं.
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11 comments:
क्या जमाना आया है किताबोँ की ऐसी कीमत !
पर चलिये आपको खजाना हाथ लग गया -
ऊपर जो कीताबेँ फ्लेश होकर बदल रहीँ हैँ वह बडा अच्छा दीखा
अब एक एक पढकर उसपे लिखना शुरु कीजिये -
मैँ भी पहले अँधाँधुँध पढा करती थी :)
रेकोर्ड है, १,००० पन्नोँ से उउपर एक दिन मेँ पढने का -
अम्मा की डाँट लगती तब पुस्तक रखई जाती थी और घर पर एक से बढकर एक और अनेकविध , दुर्लभ कीताबोँ का अँबार था !
(ये सारी पापाजी की कीताबेँ थीँ )
- लावण्या
आपकी तो लाटरी लग गई, ईतना सारा खजाना और ईतने सस्ते में :)
किसी ने सही कहा है..."इश्वर जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है" काश हम पर भी इश्वर की कृपा दृष्टि पढ़ जाए...किताबें देख कर अपना बचपन याद आ गया जब हमारे यहाँ हिंद पॉकेट बुक्स की ५ किताबें हर महीने आया करती थीं और छे साल में कोई ३५० किताबें जमा हो गयी जो अब दोस्तों और रिश्तेदारों की मेहरबानी से शायद ४०-५० ही बची होंगी. क्रिशन चंदर और अमृता जी का पूरा साहित्य तभी पढ़ डाला था. आप की किस्मत से मुझे इर्षा हो रही है....सच्ची...
नीरज
वाह ! किताबों का कवर देखकर मज़ा आ गया । पता नहीं किस लोक और समय में खींच ले गया । तब के कवर और अब के में कितना फर्क है ... ऊपर बड़ा सुन्दर कोलाज़ ...
वाह इतना बड़ा खजाना वो भी इतने सस्ते में ..पता बताना जरा इस जगह का .:) पास है तो हम भी इस खजाने को ले आते हैं अपने घर
बहुत सही। कभी कभार अपनी भी ऐसी लाटरी लगी है जब रविवार को पटरी पर बिकने वाली किताबों में कई अच्छी किताबें बहुत कम दामों में मिल गईं।
हिन्द पाकेट बुक्स की किताओं का जमाना - जब एक दो रुपये में थीं ये किताबें और पढ़ने का जैसे जुनून हुआ करता था .... आपने याद दिला दिया। उनमें से दो चार अभी भी अलमारी में होंगी।
चरित्र का बहुत हिस्सा इन पुस्तकों ने बनाया है।
वह सब याद दिलाने के लिये धन्यवाद।
(और स्लाइड शो ने तो चार चांद लगा दिये पोस्ट को। रॉकयू वाली साइट बुकमार्क कर ली है।)
स्कूल के दिनों में अपने गांव में दोस्तों के साथ मिलकर एक पुस्तकालय खोला था। चूंकि हमारे पास पैसे कम होते थे, इसलिये हम पुरानी पुस्तकों और पत्रिकाओं की तलाश में रहते थे। आपकी पुस्तक चर्चा ने उन दिनों की याद दिला दी। अब तो विकास के नाम पर इतने पैसे खर्च होते हैं, लेकिन गावों व कस्बों में पुस्तकालय शायद ही कहीं दिखें।
waah...sachmuch lottery lag gayi aapki to. kaheen fir se jugad ho to hame bhi bataiyega :)
इतने मन मोहक कवर पेज़ और वह भी पुराने कहानीकारों के...पढ़ने के लिए कहाँ से मिलेगीं सब की सब ?
arrey waah ! kahan hai aisi dukaan? hamein bhi bataaiye.
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