आप बड़े जतन से एक फर्जी आइडेंटिटी रचते हैं. महीनों के कड़े परिश्रम से उसे लोकप्रिय बनाते हैं, लोग धीरे-धीरे आपके झांसे में आना शुरू होते हैं. और फ़िर एक दिन अचानक कहीं से आपकी हरकत का भंडाफोड़ हो जाता है. बना-बनाया महल इस तरह मिट्टी में मिलता देख गुस्से से आग-बबूला हो जाना स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. इससे इतर और उम्मीद भी क्या की जा सकती है, लेकिन आप को अंदाजा नहीं है कि शब्दों की कड़वाहट भी कई राज खोल देती है.
इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया एक विचित्र जगह है. इस आभासी लोक में जब आप किसी को ब्लॉग पर लगातार पढ़ते हैं तो उसके व्यक्तित्व के बारे में धीरे-धीरे एक सोच कायम कर लेते हैं. निश्चित रूप से इस सोच में आपका अपना पर्सपेक्टिव और अपनी विचारधारा भी एक अहम् भूमिका निभाती है. कोई ऐसा, जिसके विचार आपके विचारों से मिलते-जुलते लगें, उसे आप जल्द ही अपने काफी नजदीक महसूस करने लगते हैं.
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अब जरा स्पेसिफिक बात की जाए. रख्शंदा के नाम से लिखने वाले दुर्जन (पहले मैंने इन्हें गलती से सज्जन लिखा था) ने अपनी आग-बबूला पोस्ट में ढेर सारा जहर उगला है. इन जनाब के तंग मजहबी जेहन में जितना विष हो सकता था, लगता है सारा का सारा बेचारे एक घोस्ट बस्टर के ऊपर ही खर्च कर डाला है. :-)
जरा एक बार फ़िर से देखें कि ये सारा मामला आख़िर है क्या जिस पर इतनी हाय-तौबा मचाई जा रही है. दुनिया भर के सारे आरोप गंदी से गंदी भाषा में जड़े जा रहे हैं. समूची ब्लॉगर बिरादरी का आह्वान किया जा रहा है कि चलिए और इस धृष्ट की ख़बर लीजिये. खास तौर पर महिला ब्लॉगर्स को उकसाया जा रहा है कि इतना बड़ा मुद्दा हुआ और किसी महिला ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठायी?
आप किसके बारे में क्या धारणा बनाते हैं ये आपका व्यक्तिगत अधिकार है. इस मामले में कोई आपको अपनी राय बनाने या बदलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. मैंने इन जनाब के कुछ लेख पढ़े, इनकी असलियत और सही नीयत को लेकर मुझे कुछ शक हुआ. इंटरनेट पर थोड़ी सर्च की, शक और पुख्ता हुआ. उचित समय पर इसके बारे में अपने ब्लॉग पर मैंने संतुलित शब्दों में अपनी बात रख दी.
अब जरा इन साहब के शब्दों पर गौर कीजिये:
"जब आप सड़क पर खड़े हो कर किसी को गाली देने लग जाएँ, यहाँ तक कि गांधी जी को, तो थोडी देर के लिए लोग आपकी तरफ मत्वज्जा तो हो ही जायेंगे"दो गलतियाँ हैं इसमें जनाब, एक तो ये कि मैंने आपकी तरह किसी को गाली नहीं दी, केवल आपके झूठ से परदा उठाया, दूसरे ये कि इसके लिए मैंने किसी सड़क का रुख नहीं किया, कहीं और किसी के ब्लॉग पर जाकर चीख-चिल्लाहट नहीं मचाई. बल्कि अपने ख़ुद के ब्लॉग पर दो शब्द कहे, जो कि मेरा जायज हक़ है.
एक और मुद्दा जो बनाने की दिलो-जान से कोशिश की जा रही है, वो ये कि इन साहब को पुरूष बताकर मैंने महिलाओं का कोई अपमान किया है. बाकायदा सुजाता जी तक को पुकारा जा रहा है. खासा हास्यास्पद प्रयास है यह. जरा घटनाक्रम को ध्यान से देखिये और सोचिये. किसी ब्लॉगर पर मुझे नकली आइडेंटिटी वाला होने का शक होता है. मुझे लगता है कि इस प्रकार के लेख लोगों को मूर्ख बनाने के लिए और अपनी दूकान चलाने के लिए लिखे जा रहे हैं. कई लेखों और टिप्पणियों की गैरजरूरी आक्रामकता और इनमें झलकते मजहबी जूनून से ऐसा शक होता है कि कोई महिला शायद इस तरह की भाषा और व्यवहार को अपनाने में इतनी सहज नहीं रह पाती. ऐसा सोचने की सामान्य वजह यही है कि इस देश में अभी भी महिलाऐं पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक सभ्य और शालीन हैं. पान की दूकान पर महिलाओं के गोल बाँध कर खड़े हुए और आते जाते पुरुषों पर फब्तियां कसने की कल्पना कर सकते हैं क्या आप? कुछ निचले स्तर के कारनामे अभी तक केवल पुरूष ही अंजाम देते आए है और आगे भी उन्हीं का अधिकार रहने वाला है. तो जब इनकी हरकत को मैंने महिला जनित ना समझते हुए पौरुषिक लम्पटता से जोड़ा तो ये महिलाओं के लिए अपमान की बात कैसे हुई? आप स्वयं विचारिये.
ये साहब एक पहुंचे हुए कलाकार और कथाकार हैं. ढेर सारे प्रभावकारी अल्फाजों की इनके पास कोई कमी नहीं है, हलाँकि तर्कों और विचारों से ज्यादा काम नहीं लेते क्योंकि वहां इनके मजहबी जूनून में खलल पड़ेगा. अभय जी से सम्बंधित मेरे लेखों के बारे में जो इन्होने लिखा है उससे भी ये बात स्पष्ट हो जाती है.
और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है, मगर ये सब सिर्फ़ समय की बर्बादी होगी. इनके बारे में मैं जो कुछ सोचता हूँ, बता दिया. अब इस मुद्दे को और आगे बढ़ाने का मेरा कोई इरादा नहीं है. दूसरा और बहुत काम अभी बाकी है.
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अंत में बस कुछ प्रश्न छोड़ता हूँ, आप ब्लॉगर साथियों के विचारने के लिए.१) फरवरी माह के अंत में मैंने हिन्दी ब्लॉग्स को डिस्कवर किया था. उस समय एक बड़ा विवाद अपने अंत की ओर अग्रसर था. मुझे पूरी तरह जानकारी नहीं है, मगर ऐसा लगता है कि भड़ास नामक ब्लॉग को लेकर "मोहल्ला" और "चोखेर बाली" का कोई झगड़ा था. जब समूचा ब्लॉग जगत भड़ास की भाषा को लेकर कराह रहा था और महिलाओं की तो छोडिये, अधिकांश भद्र पुरुषों तक ने अपनी नाक पर रूमाल रख कर उस ओर से मुंह फेर लिया था, तब कई फर्जी महिला आइडेंटिटी बनाई गयीं, जिन्हें हम सब जानते हैं. इन फर्जी महिला चरित्रों के अलावा ब्लॉग जगत से और कोई महिला वहां कभी नहीं दिखी. इस बात की असलियत पूरे ब्लॉग जगत को पता थी सिवाय उन भड़ासियों के जो इन्हें बना और चला रहे थे और इन महिलाओं के जो आपस में एक दूसरे को असली मानकर कमेन्ट देती थीं.
रख्शंदा एक ऐसा ही नाम है. इस नाम से वहां कई पोस्ट्स और ढेरों कमेन्ट लिखे गए जो अब भी मार्च अप्रैल की भड़ास की पोस्टों पर देखे जा सकते हैं. क्या शक नहीं होता कि यह श्रीमान भड़ास से जुड़े हुए कोई पत्रकार हैं?
२) इनकी ब्लॉगर प्रोफाइल के अनुसार ये एक राईटर हैं. ब्लॉग पर लेख भी बड़े संजीदा किस्म के होते हैं. बात बात में नैतिकता में गिरावट के लिए अमरीका को कोसने का काम चलता रहता है. लेकिन ब्लॉग का नाम रखने की बात आती है तो वो चुना जाता है, "प्रेटी वूमन". कोई गंभीर महिला अपने ब्लॉग का इस तरह का छिछोरा नाम रखेगी इसमें मुझे शक है. मुझे तो ये सस्ती लोकप्रियता बटोरने का कोई नुस्खा ज्यादा दिखता है. साथ में किसी सुंदर महिला की तस्वीर लगी हो तो भीड़ अच्छे जुट ही जायेगी.
ऐसे और भी कई प्रश्न हैं. मगर ज्यादा कुछ कहना बेकार है.
इस्राइल का नाम भर ले लिया जाय तो लोग आपको ख़ुद इस्राइल बना देते हैं. एक साथ कई फ्रंट खुल जाते हैं. लोग मिलकर हमला बोल देते हैं. इतने सारे फ्रंट पर एक साथ खड़े रहना मेरी क्षमता से परे है. विचलन से बचना चाहता हूँ, इसलिए अब इस मुद्दे को यहीं दफ़न करूंगा. |
24 comments:
हम्म्म. मामला कुछ उलझा हुआ लगता है. हमारा "नो कमेन्ट" है जी.
इस्राइल पर लिखने की रेट सबसे अधिक है।
शंका करना बुद्धि का लक्षण है। आपकी शंका से सत्य सामने आये, यही कामना है।
किन्तु एक सलाह है। आप अपनी शक्ति और लक्ष्य दोनो को केन्द्रित (फ़ोकस्ड) रखिये। इसका ध्यान रखिये कि मुख्य मार्ग से भटकाव बहुत अधिक न हो।
मेरी दूसरी टिप्पणी को हटा दीजिये। गलती से यहाँ चिपक गयी।
जी अनुनाद सिंह जी, दूसरी टिप्पणी हटा दी है.
चलिये, विचार द्वन्द्व के बहुत मौके मिलेंगे!
आपकी शंका वाजिब है.. पूर्व में हुए अनुभवो को देखते हुए आपका पोस्ट लिखना स्वाभाविक था.. परंतु आप निश्चिंत रहिए मेरी एक मित्र की रक्षंदा से बात हुई है.. वो लड़की ही है.. उम्मीद है इस विवाद का अब अंत होगा..
भइया प्रेत विनाशक जी प्रवाष पर हूँ पर आपकी शंका निराधार है रक्षंदा एक लड़की है .जहाँ तक बात है भड़ास कि रक्षंदा से रिश्ते कि तो वह भी जल्द ही आप सब के सामने होगा..अगर आपको मेरी पहचान पर शक न हो तो,और अगर है तो आप बहुत लोग जैसे प्रशांत प्रियदरसी ,सुजाता जी ,कुश भाई से बात कर के अपनी शंका का समाधान कर सकतें हैं..
घोस्ट जी अब साबुत हो जाए,
१. मैंने उससे बात की है,न सिर्फ़ उससे बल्कि उसकी माँ से भी.
२.उसके लिए एडसेंस का फॉर्म भी भरा है उसमे पता था और उसका नाम भी.
३.उसकी एक कहानी सखी मैगजीन में छपी थी..उसमे भी उसका नाम यही था "रक्षंदा अख्तर रिजवी".
बाकि भड़ास से अपने रिश्ते का खुलासा वह ही करे तो अच्छा होगा.
बाकि कहने के लिए कुछ भी कहा जा सकता है कोई भी तर्क दिया जा सकता है इन्हे ग़लत साबित करने का.
लवली
साबुत को सबूत पढ़ें :-)
'फरवरी माह के अंत में मैंने हिन्दी ब्लॉग्स को डिस्कवर किया था. उस समय एक बड़ा विवाद अपने अंत की ओर अग्रसर था. मुझे पूरी तरह जानकारी नहीं है, मगर ऐसा लगता है कि भड़ास नामक ब्लॉग को लेकर "मोहल्ला" और "चोखेर बाली" का कोई झगड़ा था. जब समूचा ब्लॉग जगत भड़ास की भाषा को लेकर कराह रहा था और महिलाओं की तो छोडिये, अधिकांश भद्र पुरुषों तक ने अपनी नाक पर रूमाल रख कर उस ओर से मुंह फेर लिया था, तब कई फर्जी महिला आइडेंटिटी बनाई गयीं, जिन्हें हम सब जानते हैं. इन फर्जी महिला चरित्रों के अलावा ब्लॉग जगत से और कोई महिला वहां कभी नहीं दिखी. इस बात की असलियत पूरे ब्लॉग जगत को पता थी सिवाय उन भड़ासियों के जो इन्हें बना और चला रहे थे और इन महिलाओं के जो आपस में एक दूसरे को असली मानकर कमेन्ट देती थीं.
रख्शंदा एक ऐसा ही नाम है. इस नाम से वहां कई पोस्ट्स और ढेरों कमेन्ट लिखे गए जो अब भी मार्च अप्रैल की भड़ास की पोस्टों पर देखे जा सकते हैं. क्या शक नहीं होता कि यह श्रीमान भड़ास से जुड़े हुए कोई पत्रकार हैं?'
ऊपर की बातें भूतजी की झोली से उठाई गई हैं। भूतजी का एक इशारा यह भी है कि रख्शंदा एक फर्जी नाम है, जिसे मार्च-अप्रैल की टिप्पणियों के लिए गढ़ा गया था।
भूतजी की बातें भूत के अस्तीत्व की तरह ही आधारहीन तब लगने लगीं, जब रख्शंदाजी के प्रफाइल को मैं झांकने गया। वहां मेंशन कि यह ब्लॉग अक्टूबर 2007 में क्रिएट किया गया है। गौर करें कि क्रिएशन का यह समय है ब्लॉगर वहां फीड नहीं करता, बल्कि जब आप ब्लॉग क्रिएट करते हैं तो यह सूचना खुद-ब-खुद वहां आ जाती है। यह अलग बात है कि अक्टूबर में क्रिएट करने के बाद रख्शंदाजी की पहली पोस्ट 7 मार्च 2008 को आई। यह भी देखना रोचक होगा कि इनकी शुरुआती पोस्ट पर टिप्पणियां या तो नहीं है या उनकी संख्या बेहद कम हैं
ठीक इसके उलट, भूतजी का ब्लॉग '2008 में क्रिएट हुआ है। ध्यान रहे कि यह वही वक्त है जब मोहल्ला और भड़ास अपनी-अपनी पोल खोल रहे थे। यह अलग बात है कि भूतजी की पहली पोस्ट मजदूर दिवस के दिन आई। साथ ही 35 कमेंट भी मिले। यानी, एक स्ट्रैटजी के तहत यह जनाब दूसरों के ब्लॉग पर टिपियाते रहे और पहली पोस्ट में ही चर्चित भी हुए।
कहने का मतलब सिर्फ इतना कि रख्शंदाजी की ब्लॉगिंग में स्ट्रैटजी नहीं झलकती पर घोस्ट बस्टर जी में स्ट्रैटजी की बू आती है।
अरे भाई,
बहुत सारे पुरुषों ने इस धरा पर अवतरित होने के बाद महिलाआें जैसा जीवन जिया है। आप किसी की निजता आैर स्वतंत्रता में क्यों दखल देते हैं। आप अगर विचारों से सहमत नहीं है तो टिप्पढ़ी लिखिए। ब्लाग पर जाना छोड़ दीजिए। अब वह नर हैं या नारी, आपको इससे क्या फर्क पड़ रहा है। जब आपके भूत बने रहने से किसी को परेशानी नहीं हैं तो आपको क्यों है।
अपनी उर्जा इन फालतू की पोस्ट में लगाने के बजाए कुछ सार्थक लिखिए। बाकी हरि जोशी जी ने ऊपर जो लिखा है वो मेरे भी विचार हैं।
दिलचस्प!
दीपक भारतदीप
कुश जी: आपकी बात आपकी परिपक्वता दर्शाती है. मैं इस बारे में और कुछ नहीं कहना चाहता पर अपनी बात पर कायम हूँ. आपका आभार.
लवली जी: आपकी पहचान पर कब और किसने शक किया है जो मैं औरों से आपके बारे में तफ्तीश करूं? बाकी इन सबूतों को तो आसानी से झुठलाया जा सकता है, जैसा कि आपने स्वयं कहा है.
देखते हैं वक्त ही हल होगा इस विवाद का ....हम सभी यहाँ हैं ..फैसला हो जाएगा.
घोस्ट जी डर लग रहा था इसलिए पहचान बता दी पहले ही.
खोज करते रहीये.. हम आपके साथ-साथ चलेंगे।
अरे ई सब का लोचा है साहेब, हम कुछ दिन गायब का हुए इधर से इ का बवाल हुई गवा
दस दिन से ब्लॉग की दुनिया से बाहर रही अब समझने की कोशिश करती हूँ कि यह मामला क्या है ? लिंक उपल्ब्ध कराने के लिए आभार
थोड़ा लोचा है. अगर लेखन का विश्लेषण महिला-पुरूष, हिंदू-मुसलमान से किनारे हट के करने की कोशिश हो तो कैसा होगा. रक्षंदा जी के महिला पुरूष के सवाल की जगह उनके लेखन पर चर्चा होती तो ज्यादा सार्थक होता. प्रेटी वूमन नाम में भी ऐसी कोई बुराई नही है की आसमान नीचे आ जाए. थोड़ा मूल प्रश्नों पर सोच विचार होता तो अच्छा लगता
प्रोफाइलों मे ताक-झांक क्यों ज़रूरी है , यह समझ नही आता । क्या ब्लॉगिंग को ब्लॉगिंग की तरह नही किया जा सकता।अपनी शंकाओ को सार्वजनिक करने से पहले सबूत जुटाने चाहिये यह भी कहा जाए तो सिद्ध होगा कि किसी का ब्लॉग पढने से पहले उसकी वेरीफिकेशन ज़रूरी है । यह फालतू काम है , आप स्वयम कह चुके कि नेट की दुनिया मे यह होता है, हो रहा होगा , पर यह इस दुनिया का एक सच है।
लेखक की लेखनी पर केन्द्रित रहे तो बेहतर है ।
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