Friday, October 17, 2008

मार्क्सवाद एक मृतप्रायः आपराधिक विचारधारा है

डॉ. कोनराड एल्स्ट (Dr. Koenraad Elst) का जन्म ७ अगस्त, १९५९ को ल्युवेन, बेल्जियम में एक फ्लेमिश (यानी डच स्पीकिंग बेल्जियन) केथोलिक परिवार में हुआ था. उन्होंने ल्युवेन की केथोलिक यूनिवर्सिटी से दर्शन शास्त्र, चाइनीज और इंडो-इरानियन स्टडी में स्नातक किया. बाद में उसी यूनिवर्सिटी से पी. एच. डी. की उपाधी हासिल की. भारत में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपने प्रवास के दौरान वे भारत की साम्प्रदायिक समस्या से परिचित हुए और उन्होंने अपनी पहली किताब अयोध्या विवाद के सन्दर्भ में लिखी. कई बेल्जियन और भारतीय समाचार पत्रों में स्तंभकार के रूप में लिखने के दौरान उन्होंने कई बार भारत का दौरा किया और यहाँ की जातीय-धार्मिक-राजनीतिक विन्यास का अध्ययन करने के क्रम में कई भारतीय नेताओं और विचारकों से इंटरव्यू किए.

डॉ. कोनराड एल्स्ट ने अब तक पन्द्रह किताबें लिखी हैं जो मुख्य रूप से भारतीय राजनीति और साम्प्रदायिकता पर केंद्रित हैं. इसके अलावा उनके अनेक लेख मुख्य समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहे हैं.

प्रस्तुत लेख १९९२ में प्रकाशित उनकी किताब 'अयोध्या एंड आफ्टर, इशूस बेफोर हिंदू सोसायटी' की प्रस्तावना से लिया गया है.

मैं हिंदू नहीं हूँ. और निश्चित रूप से मुस्लिम भी नहीं हूँ. तो जब मैंने १९९० के बसंत में अपनी पिछली पुस्तक 'राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम विवाद में एक केस स्टडी' लिखना प्रारम्भ की, तब मैं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच इस संघर्ष के लिए एक बाहरी व्यक्ति था. लेकिन जैसे जैसे मैं भारत में आज उपस्थित विभिन्न शक्तियों के अनूठे विन्यास में गहराई में उतरता गया, यह उत्तरोत्तर स्पष्ट होता गया कि यह विवाद सिर्फ़ किन्हीं दो समुदायों के बीच एक सामान्य संघर्ष भर नहीं है. यह दो आत्म-हितों के मध्य पनपने वाला सामान्य मतभेद नहीं है. बल्कि यह एक बिल्कुल असमान प्रतियोगियों के बीच आकार लेने वाला एक ऐसा संघर्ष है जिसमें उलझे हुए पक्ष बिल्कुल असमान उद्देश्यों के साथ नजर आते हैं.

इसमें एक ओर एक ऐसा समाज है जो इस देश की सदियों पुरानी सभ्यता का वाहक है, जो सैकडों वर्षों के विदेशी शासन, उत्पीड़न और दमन के चलते बेतरहा कुचला हुआ है, और जिसे क्षेत्रीय और सांस्कृतिक हानियों के साथ-साथ उससे भी कहीं ज्यादा गंभीर नैतिक हानियों को झेलने पर बाध्य होना पड़ा है. ये वो समाज है जो अपने शानदार इतिहास और आत्म सम्मान की विस्मृति का दंश झेलने पर विवश किया गया है. लेकिन जो इस सबके बावजूद भी उन अनेकानेक संस्कृतियों की तुलना में कहीं बेहतर और सक्षम नजर आता है जो मुस्लिम आक्रान्ताओं और यूरोपीय उपनिवेशकों द्वारा पूरी तरह रौंद डाले गए. और इसी कारण आज भी इस समाज के एक बार फ़िर उबर जाने और अपने अस्मिता को पहचानने की सम्भावना प्रबल नजर आती है.

दूसरी ओर एक ऐसा समुदाय है जिसे इस समाज के भीतर कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता प्राप्त है लेकिन जिसकी पृथक पहचान की जड़ें इस वृहद् समाज की युगों पुरानी सभ्यता से कहीं बाहर हैं. अधिकांश स्थितियों में इस समुदाय के पूर्वज उसी हिन्दू समाज से बलपूर्वक बाहर खींच निकाले गए और मुस्लिम समाज में शामिल किए गए थे. इन पूर्व हिन्दुओं का हिंदू समाज के प्रति स्वाभाविक अनुराग अपेक्षित ही था, अगर ऐसा होना कुछ राजनीतिज्ञों और कट्टरपंथी धर्मशास्त्रियों के हितों के विपरीत ना होता, जो इन लोगों की एक अलग साम्प्रदायिक पहचान बनाने के लिए कार्य कर रहे थे.

लेकिन हिंदू समाज का यह संघर्ष मुख्य तौर पर मुस्लिम समुदाय के प्रति नहीं है. आज हिंदू समाज के प्रमुख विरोधी इस्लामिक साम्प्रदायिक लीडर्स नहीं हैं, बल्कि उसके अपने अन्दर शामिल उपनिवेशिक मानसिकता वाले शासक हैं. इनमें अँग्रेजी-शिक्षित और अधिकांशतः वामपंथी झुकाव रखने वाला ऐसा आभिजात्य वर्ग शामिल है जो अपने सेकुलर ख़यालात का ढोल पीटता रहता है. यही लोग हैं जो हिंदू समाज पर हिंदू विरोधी नीतियों को थोपते हैं और हिन्दुओं को लगातार नीचा दिखाकर उन्हें हजार वर्षों के दमन के बाद आज भी सर उठाने का मौका नहीं देना चाहते. हिंदू समाज के लिए सर्वाधिक यातना आज कुछ अक्खड और अक्सर हिंसक हो उठने वाले अल्पसंख्यक गुटों के आन्दोलनों से नहीं है, ना ही गैर-हिन्दुओं को प्राप्त कुछ विशेषाधिकारों से है. सबसे बड़ी समस्या इस मानसिक गुलामी, इस हीनता की भावना से है जो वामपंथी बुद्धिजीवी, शिक्षा के क्षेत्र में और मीडिया में अपनी शक्तिशाली स्थिति के माध्यम से, और जनता और राजनीतिक मंच पर अपनी प्रत्यक्ष प्रभाव के चलते, हिंदू मस्तिष्क पर थोपने के लिए प्रयासरत हैं.

इस्लामी कट्टरपंथियों के साथ एक अजीब मिलीभगत में ये वामपंथी बुद्धिजीवी काम करते हैं. नास्तिक वामपंथियों से सामान्य अपेक्षा तो यही होनी चाहिए कि इस्लाम जैसी धार्मिक प्रगति और सुधार विरोधी और हठधर्मी एंटी-युनिवर्सलिस्ट विश्वास प्रणाली के ये तीव्र आलोचक होंगे. लेकिन भारत में ये दोनों गुट आपस में सहर्ष गठजोड़ कर अपने साझा दुश्मन हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ लड़ते हुए दिखते हैं. वैसे यदि वामपंथी समझते हैं कि वे मुस्लिमों को अपने समर्थन के बदले उन्हें अपने पक्ष में लाने में सफल रहेंगे, तो वे भारी गलती पर हैं. ये सिर्फ़ एक तरफा गठजोड़ है और बढ़ते हुए इस्लामिक उग्रवाद के साथ साथ हम वामपंथियों को और ज्यादा सुरक्षात्मक होते देख रहे हैं. अभी तक वामपंथियों ने इस्लाम की सेवा में बढ़िया बुद्धिजीवी सेवाएं अर्पित की हैं. इन्होने इस्लामिक द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को पुरजोर समर्थन देते हुए भारत के टुकड़े करने में मदद की. आजादी के बाद से इन्होने सम्पूर्ण बौद्धिक और शैक्षिक परिदृश्य पर अपनी पकड़ के चलते इस्लाम के ऐतिहासिक रिकॉर्ड और वैचारिक चरित्र की सभी आलोचनाओं को पंगु बनाने का कार्य किया.

लेकिन फ़िर, यह सोचना कि यह पाश्चात्य कुलीन वर्ग केवल इस्लामी सांप्रदायिक डिजाइनों के लिए प्रयोग किया जा रहा है, शायद सतही हो सकता है. यह अभिजात वर्ग इस बात को लेकर पूरी तरह निश्चिंत है कि वह स्वयं इस्लाम के सेल्फ-एसर्शन से कोई खतरा नहीं रखता. और शायद सही भी है: एक बार आधुनिकता के पर्याप्त रूप से पनप जाने के बाद और उसके राजनीति पर प्रभाव जमा लेने के बाद इस्लाम उसके लिए खतरा नहीं बन सकता. (जैसा कि भारत में है, शाह के ईरान के विपरीत). इस्लामिक कट्टरपंथ का पुनरुत्थान हिंदू समाज के लिए एक शारीरिक खतरा हो सकता है, लेकिन हिंदू समाज को गहरी चुनौती और तीव्र घृणा तो वाम झुकाव वाली पश्चिमी (संक्षेप में: नेहरूवादी) स्थापना से ही है.

तो हिंदू समाज के पुनर्जागरण में पहला कार्य तो नेहरूवादी स्थापना को परखने और उसे बेनकाब करने का ही होना होगा, उसके राजनैतिक और ज्यादा मौलिक रूप में उसके बौद्धिक आयाम में. और आज यह कहीं ज्यादा आसान हुआ है. पचास के दशक में जब श्री राम स्वरूप और श्री सीता राम गोयल जैसे लोग साम्यवाद के ख़िलाफ़ एक बौद्धिक लडाई छेड़ रहे थे, तो वे एक व्यापक आकर्षण युक्त एक घने कोहरे से आच्छादित इस इन्ट्रुसिव विचारधारा के विरुद्ध संघर्षरत थे. आज नब्बे के दशक में आसमान कहीं ज्यादा साफ़ हुआ है और हम कभी अभिमानी रहे इन वामपंथियों के ढहते हुए किलों के बीच इनके स्वान सौंग के साक्षी बन रहे हैं. यह एक पूर्वनिर्धारित फ़ैसला ही है कि उनका साम्राज्य उसके अंत के करीब है. अब आवश्यकता सिर्फ़ इस बात की है कि इनके अन्तिम समय को आवश्यकता से अधिक लंबा न खिंचने दिया जाए और इसके बाद उत्पन्न होने वाले निर्वात को भरने की तैयारी रखी जाए.


(अभी जारी है. अगले अंक में समाप्त होगा.)

14 comments:

Anonymous said...

बकवास!

Satyawati Mishra said...

jitne jhuthey hai vo anonymous bankar comments kartey hai aur sachchai ko bakwas batatey hai jabki itihaas ko badal sakne aur uska mukabala karne ki takat unme nahi hai. Yaad rahe aaj hindu asangathit nahi hai aur vo in sabhi virodhi takato ko sabak sikhane me saksham hai.

Neeraj Rohilla said...

लेख तो अच्छा है आगे की कडी पढकर ही कुछ पता चलेगा । लेकिन जब ये ही सज्जन तेजो महलया वाली थ्योरी को आगे बढाते हैं तो अजीब लगता है ।

Gyan Dutt Pandey said...

फास्वां गौतिये को पढ़ना भी ऐसा ही अनुभव है।

Ghost Buster said...

@ नीरज रोहिल्ला जी: तेजो महालय की थ्योरी मुझे भी कुछ अजीब और भ्रांत सी लगती है, ज्यादा रूचि नहीं जगाती. हालाँकि मैं उसे पूरी तरह स्वीकारने या नकारने की स्थिति में नहीं हूँ, क्योंकि इसके बारे में कभी ज्यादा गहराई से सोचा भी नहीं. लेकिन ये थ्योरी इतिहासकार पी एन ओक द्वारा प्रस्तावित है और कोनराड एल्स्ट का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है.

आज कई संगठन हैं जो हिंदू हितों के लिए अपने अपने हिसाब से आवाज उठा रहे हैं. जहाँ बजरंग दल और विहिप जैसे कट्टर हिंदुत्ववादी संगठन अति आक्रोश में आकर उग्रवादी भाषा बोलते दिखाई पड़ते हैं (जो हिंदू विरोधियों को उन पर ऊंगली उठाने का और हिंदू राष्ट्रवादियों को बदनाम करने का मौका देती है) वहीं अनेक बुद्धिजीवी भी हैं जो मार्क्सवादी मक्कारों को उन्हीं की भाषा में उचित जवाब देने का माद्दा रखते हैं. सीताराम गोयल और राम स्वरूप इन्हीं में से हैं. कोनराड एल्स्ट, फांसवां गोतिये, डेविड फ़्रौली, अरुण शौरी को भी पढिये. ये लोग सच्चाई को बड़े ही तर्क पूर्ण अंदाज में सामने लाते हैं और वामपंथी वमन की गन्दगी को उजागर करते हैं.

संजय बेंगाणी said...

लेख तो जोरदार उठा लाये.

Hemant Pandey said...

यह जानकर अच्छा लगा की आप जैसे लोग अभी भी हैं जो हिन्दुओं की चिंता करते हैं। यह बात तो समझ में आ गयी हिन्दुओं को मुस्लिम आक्रान्ताओं और यूरोपीय उपनिवेशकों द्वारा पूरी तरह रौंद डाला गया था। यदि आप यह भी बता देते की हिन्दुओं में दलितों को किसने रोंदा तो अच्छा होता है। आप भगवान पर भी विश्वाश करते होंगे उसी ने ब्रहमांड की रचना की है फ़िर भगवान् ने दुनिया में मुस्लिमों को क्यों पैदा कर दिया जो आज आपकी और हमारी समस्या बने हुए हैं। जवाब के इन्तजार में............... एक हिंदू

अनुनाद सिंह said...

यह भी पढ़ने और गुनने योग्य है:

साम्यवाद पर सूक्तियाँ
http://hi.wikiquote.org/wiki/साम्यवाद_पर_सूक्तियाँ

Anonymous said...

यदान्त्रेषु गवीन्योर्यद् वस्तावधि संश्रुतम्।
एका ते मूत्रम् मुच्यताम् बहिर्वालिति सर्वकम्।।
-अथर्व काण्ड १ सूक्त ३ मंत्र ६
अर्थात् जैसे कि आँतों में और नाड़ियों में और मूत्राशय के भीतर जमा मल मूत्र कष्ट देता है और उसको निकाल देने से चैन मिलता है वैसे ही मनुष्य को शारीरिक, आत्मिक और सामजिक शत्रुओं को निकाल देने से सुख प्राप्त करता है।
ये रक्तबीज मुसलमान भी ऐसे ही सामाजिक शत्रु हैं जिनके निकालने से हमारे देश को चैन मिलेगा। अभी भी इनको पालते रहे, इनके ज़ुल्मों के सहते रहे तो हमारा देश रोगी हो जाएगा। सोचो और विचारो।
अगर टिप्पणी नहीं करना चाहते तो मुझ़े मेल करो matribhoomibharat@gmail.com पर।

Arvind Mishra said...

बहुत ही विचार पूर्ण विश्लेषण चल रहा है अगली कड़ी का इन्जार रहेगा -कृपया याद भी दिलाएं तो आभारी होउंगा !

admin said...

मार्क्सवाद के बारे में एक नया नजरिया जानने को मिला। अगली कडी का इंतजार।

Shastri JC Philip said...

यह एक सशक्त लेख है. इसे पढवाने के लिये आभार.

जिसने भी अनुवाद किया है, भाषा एवं विषय पर उसकी अच्छी पकड है.

आगे की कडी का इंतजार रहेगा.

-- शास्त्री

-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

Gyan Darpan said...

एक शानदार और सशक्त लेख . इसे पढवाने के लिये आभार.

ताहम... said...

""यह जानकर अच्छा लगा की आप जैसे लोग अभी भी हैं जो हिन्दुओं की चिंता करते हैं। यह बात तो समझ में आ गयी हिन्दुओं को मुस्लिम आक्रान्ताओं और यूरोपीय उपनिवेशकों द्वारा पूरी तरह रौंद डाला गया था। यदि आप यह भी बता देते की हिन्दुओं में दलितों को किसने रोंदा तो अच्छा होता है। आप भगवान पर भी विश्वाश करते होंगे उसी ने ब्रहमांड की रचना की है फ़िर भगवान् ने दुनिया में मुस्लिमों को क्यों पैदा कर दिया जो आज आपकी और हमारी समस्या बने हुए हैं। जवाब के इन्तजार में............... एक हिंदू""



जैसा लेख है वैसा ही जवाब भी दे दिया है, इन सज्जन ने........., इस्लाम और हिंदू विद्रोह के नए पैंतरे ही भारत को खोखला करने में कामयाब हैं, परन्तु मार्क्सवाद यदि सर्व्हार दबी हुयी सच्चाई को सामने लाने का प्रयत्न कर रहा है, वह सबका विरोधी है, मुश्किल यही है कि लोगों ने हमेशा अनुयायिओं से ही अनुमान लिए हैं, वे सीधे मार्क्सवाद को नहीं जानना चाहते, वे उनके अनुयायिओं पर विश्वास करते हैं, और उलझन में आलोचना करते है। यदि इस्लाम हिंदुस्तान का दुश्मन भी है, तो दुनिया में मेरे ख्याल से कोई शक्ति नहीं है जो भारत से इस्लाम को अलग कर सके..क्यूंकि ऐ आर रहमान, और अब्दुल कलाम भी मुसलमान हैं, जिनकी शक्ति से भारत जाना जाता है, न कि उनके मुसलमान होने से। भारत को वर्गों ने ही वर्गीकृत किया है, युद्ध कि व्यख्या से युद्ध नहीं रुकता..मार्क्सवाद के भूतपूर्व कार्यों से उसके भविष्य का निर्धारण नहीं हो सकता,, क्यूंकि चलाने वाले हम ही में से हैं, और ये एक भारी बात ही है कि आज मार्क्स भारी पड़कर विरोध का मुद्दा बनकर सामने आ रहा है। आप इनके सामने मार्क्सवाद और समाजवाद सामने रख रहे हैं, जो हिंदू मुस्लिमों के दंगों जैसी संकीर्ण विचारधारा से नहीं निकल पाये हैं, कुछ दलों के साथ मिलकर ये भारत का उत्थान चाहते हैं और उस दल प्रमुख को ख़ुद नहीं जानकारी, कि उनकी कार्य प्रणाली क्या है ? कुछ रटे रटाये जुमलों को दोहराना जिनकी फितरत है। यह कैसा चिंतन है जो एक पक्षीय है। मैं चाहूँगा कि जो भी जवाब दिया जाए, एक शालीनता से दिया जाए,,मैं ने अपनी शालीनता को बरक़रार रख कर ये जवाब दिया है।



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