Saturday, October 25, 2008

मुसलमान नहीं, इस्लाम दोषी है.

डॉ. कोनराड एल्स्ट विश्व भर में अपनी तार्किकता और ज्ञान के लिए प्रसिद्धि पा चुके हैं. पूरी दुनिया के अनेक बड़े मंचों से वे अपने पेपर्स पढ़ते रहे हैं. भारतीय राजनीति और साम्प्रदायिक समस्या पर लिखी उनकी पुस्तकें बुद्धिजीवी हलकों में बहुत मकबूल हुई हैं और चर्चा का विषय बनी हैं.

आइये पिछली पोस्ट की अधूरी बात को आगे जारी करते हैं और जानते हैं कि डॉ. एल्स्ट के विचार.


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बौद्धिक स्तर पर हिंदू जल्द ही आजादी की साँस लेने में सक्षम होंगे. वे सनातन धर्म की अनेक मूल्यवान अभिव्यक्तियों को एक बार फ़िर पहचानने और समझने में भी समर्थ होंगे. सनातन धर्म की एकता और अखंडता को उसके मूल रूप में स्थापित करने में वे कामयाब होंगे और जब वे इस वैज्ञानिक तथ्य को दोहराएंगे कि बौद्ध, जैन और सिख धर्म, स्कूलों और सम्प्रदायों के एक ही हिंदू राष्ट्रमंडल के पूर्ण सदस्य हैं तो ऐसा कहने पर उन्हें किसी सांप्रदायिक निशाने पर नहीं रखा जा सकेगा. हिंदू समाज के दुश्मनों द्वारा जिस छद्म-ऐतिहासिक आधार (pseudo-historical basis) पर जातीय और क्षेत्रीय अलगाववाद को बढ़ावा दिया जाता है, वे उसका भण्डाफोड़ करने और हिंदू समाज की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने में पूरी तरह कामयाब रहेंगे. वे हिंदू समाज की बुराइयों को भी वास्तविक तथ्यों के आधार पर सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (historical perspective) में देखने में और उन्हें सार्वभौमिक मानकों (universal standards) के आधार पर परखने में सक्षम होंगे बजाय उन शत्रुतापूर्ण तदर्थ मानकों (hostile ad hoc standards) के जो हिंदू समाज के दुश्मनों द्वारा लागू किए जाते हैं.

एक नवीकृत स्व-जागरूकता से सुसज्जित हिंदू बढ़ते हुए उग्रवादी मुस्लिम विश्व की चुनौती का सामना करने में सक्षम होंगे. अब तक, वामपंथियों की मदद से इस्लाम भारत पर एक प्रकार का आपातकाल थोपने में कामयाब रहा है. इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान, हर कोई नेहरू की बेटी के स्तुति गान के लिए तो पूर्णतः स्वतंत्र था लेकिन उनकी आलोचना करना एक खतरनाक काम था. सभी भारतीय बुद्धिजीवी इस प्रकरण (जिसके दौरान संविधान संशोधन कर भारत को धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाया गया था) का उल्लेख रोष के साथ करते हैं. कुछ इसी प्रकार की स्थिति आज देखने में आती है जब हम ये पाते हैं कि इस्लाम को शान्ति और भाईचारे का रिलिजन बताकर उसकी सराहना करने की तो अनुमति है पर इस्लामी इतिहास और सिद्धांतों की छानबीन करना और उसे परखना, या केवल कुछ असुविधाजनक प्रश्न भर पूछना भी सोच से बाहर की बात है. उन किताबों पर जो इस दिशा में कार्य करती हैं, पाबंदी की सम्भावना रहती है और इसमें इन्हीं सेकुलरवादियों का मौन या प्रत्यक्ष अनुमोदन रहता है. अखबारों के संपादकों ने इस्लाम के प्रति आलोचनात्मक लेखन से पूर्ण परहेज बना रखा है. बौद्धिक रूप से इस्लाम को सुरक्षात्मक स्तर पर धकेल कर उसके अंहकार भाव को ठंडा किया जाना काफी आसान है. इसके लिए उन्हीं क़दमों को उठाना होगा जिन्हें ये "आपातकाल" रोकना चाहता है. अगर हिंदू इस्लाम के मूल ग्रंथों का संज्ञान ले लें, वास्तव में जिन सिद्धांतों का ये प्रतिपादन करते हैं उसे समझ लें, पैगम्बर के मिशन और कैरियर की कहानी को जान लें और भारतवर्ष पर इस्लाम के हमलों और प्रभुत्व में इन सिद्धांतों के अनुप्रयोग की असली कहानी को समझ लें, तो वे इस साम्राज्यवादी विचारधारा के यशोगान की अपनी आदत से जल्दी ही छुटकारा पा जायेंगे. इसके अतिरिक्त, यदि वे उन सटीक मनोवैज्ञानिक श्रेणियों का प्रयोग कर, जो हिंदू परम्परा ने विकसित की हैं, इस्लाम के केन्द्रीय ग्रंथों और सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाली चेतना की गुणवत्ता को समझें, तो उन्हें इस्लाम की मानसिक चापलूसी की बीमारी से उबरने में अधिक समय नहीं लगेगा.

यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि इस्लाम बहुत लंबे समय तक नहीं टिकेगा. किसी भी तर्कसंगत भावना, जो कि हिन्दुओं में सहस्त्राब्दियों से विद्यमान है, और जो पश्चिम की आधुनिक संस्कृति और शिक्षा के प्रसार के दौर में केन्द्रीय रूप ले चुकी है, के साथ टकराव में इस्लाम का तर्कहीन, तानाशाहीपूर्ण और आत्म-मुग्ध रवैया कहीं टिक ही नहीं सकता. विज्ञान का यूनिवर्सलिस्ट दृष्टिकोण इस दोषपूर्ण विश्वास के ख़िलाफ़ विद्रोह करता है कि कोई एक आदमी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के रचनाकार से सीधे एक विशेष संदेश प्राप्त कर सकता है, जबकि अन्य सभी लोग ऐसे किसी प्रत्यक्ष संपर्क से बहुत दूर रखे जाते हैं. विज्ञान का आलोचनात्मक दृष्टिकोण इस मांग को अस्वीकार करता है कि हम मुहम्मद के पैगम्बरी के दावे को बगैर किसी सत्यापन के स्वीकार कर लें. इस्लाम के पास विज्ञान और तर्कशीलता की इस चुनौती का कोई उत्तर नहीं है.

इसके अलावा, इस्लामी सक्रियता में वर्तमान उत्थान, चाहे कितना भी खतरनाक क्यों न लगता हो, स्वयं मुस्लिमों को किसी भली दिशा में ले जाने वाला नहीं है. यह दुनिया भर के गैर-मुस्लिमों के खिलाफ लोकप्रिय आक्रामकता भले ही जुटा ले, पर जब किसी राष्ट्र का शासन सँभालने की बात आती है तो यह साम्यवाद से भी बदतर साबित होगा. बेशक इसकी जड़ें लोगों की आत्मा में कहीं अधिक गहरे में जमीं हैं, लेकिन इसका सामना उन भौतिक आवश्यकताओं और लोकप्रिय नजरिये एवं आकांक्षाओं से है, आज जिनका प्रसार आधुनिकता ने विश्व के समस्त देशों में कर दिया है. यहाँ तक कि इस्लामी शासकों को भी, चाहे वे तानाशाह ही क्यों न हों, अपने लोगों की इच्छाओं का ध्यान रखना होता है और इसके लिए उन्हें आधुनिक भौतिक संसाधनों की आवश्यकता होती है, क्योंकि आज के जनसंख्या बहुल देशों में जीवन के लिए आवश्यक आधुनिक बुनियादी सुविधाओं का होना अपरिहार्य बन चुका है. (उल्लेख करना आवश्यक नहीं कि आज आधुनिक हथियारों के प्रति इस्लामी शासकों का लगाव उतना ही है, जितना कि 'काफिर' शासकों का). तो वे आधुनिक प्रौद्योगिकी से मुंह नहीं मोड़ सकते, इसलिए आधुनिक विज्ञान, और इसलिए आधुनिक सोच. हालांकि आधुनिक सोच मानवता की प्रगति में कोई अन्तिम शब्द नहीं है, लेकिन यह इस्लाम के केन्द्रीय विश्वासों को झकझोरने के लिए पर्याप्त है.

तो यहाँ हमने केवल इस्लाम की कमजोरी का प्रदर्शन किया है. संभवतः यह समझदारी और मानवता की संस्कृति के ख़िलाफ़ जीत नहीं सकता. हालांकि यह कुछ और समय के लिए टिका रह सकता है और शायद तब तक अपनी संख्या और सत्ता को बढ़ाना जारी रख सकता है, लेकिन अंततः इसका खंडित होना तय है. यह किस प्रकार टूटेगा यह आंशिक रूप से लोगों के उद्भव पर निर्भर करता है, विशेष रूप से उन जन्म से मुस्लिम लोगों के जो अन्य मुस्लिम समुदाय के साथ मंच पर इस्लाम की सक्रिय आलोचना करते हैं. साथ ही यह निर्भर करता है उन गैर-मुस्लिमों पर जो मुस्लिम समुदाय के साथ सतत संपर्क में हैं, जैसे कि हिंदू, कि वे इस्लाम के केन्द्रीय दावों के प्रति अपने संदेहों को कितनी स्पष्टता और दृढ़ता से प्रकट करते हैं और किस तर्क और मानवीयता के साथ वैकल्पिक विचारों को प्रकट करते हैं. इस्लाम की तर्कसंगत आलोचना इन्सानी सोच को इक ऐसा नाजुक मगर महत्वपूर्ण मोड़ देगी जिससे कतई कन्नी नहीं काटी जा सकेगी. पर अंततः इस्लाम के अवश्यम्भावी पराभव में जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक होगा, तो वह बेहतर (यानी अधिक तर्कसंगत और मानवतावादी) सोच और संस्कृति के प्रति सकारात्मक मानवीय आकर्षण ही रहेगा.

इस्लाम को हिंदू उत्तर मुख्यतः समझदारी से भरे उस सकारात्मक दृष्टिकोण से ही प्रेरित होना चाहिए जिसकी जड़ें हिंदू मानवतावादी सोच में गहराई से जमी हुई हैं और जिसकी शाखाएं उस आत्मज्ञान से फूटती हैं जो हिंदू परम्परा सदियों से पोषित करती आयी है. उसे, उदाहरण के तौर पर, वर्तमान इस्लामी चढ़ाव के दो सांस्कृतिक घटकों के मध्य एक भेद सावधानीपूर्वक समझना होगा: इनमें से एक तो पश्चिम की न्यूनकारी (reductionist) संस्कृति, जो स्वयं आत्मिक रूप से गरीब है, के बढ़ते दवाब के विरुद्ध आवाज उठाना है, ये एक ऐसी सोच है जिससे शायद हिंदू भी सहमत होंगे. वहीं दूसरी ओर है इस्लामी विश्वास प्रणाली का कट्टर अतिवादी अध्यारोपण. हिन्दुओं को उन मानसिक और सामजिक संरचनाओं को समझना चाहिए जो लोगों को ऐसी तर्कहीन विश्वास प्रणालियों से जुड़ने को प्रेरित करती हैं. उन्हें अपने व्यवहार और सोच में उस सूक्ष्म अन्तर को बनाये रखना होगा जो इस विश्वास प्रणाली में फंसे हुए लोगों और स्वयं इस्लामिक विश्वास प्रणाली के मध्य है. और ऐसा करना आसान, अधिक विश्वसनीय और कम आक्रामक हो जाएगा, यदि वे अपनी स्वयं की संस्कृति पर भी एक समान रूप से गंभीरतापूर्वक दृष्टिपात करें, उन दोनों प्रकार की सोच को तिलांजलि देते हुए जो या तो आत्महीनता या फ़िर आत्मस्तुति का पल्ला पकड़ती हैं, और दुर्भाग्यवश यह स्थिति वर्तमान हिंदू लफ्फाजियों में आम तौर पर प्रचलित है.

यहाँ पर यह भली-भांति समझ लिया जाना चाहिए कि इस्लाम की यह आलोचना एक विश्वास प्रणाली और उससे सम्बंधित व्यवहारिक नियमावली की आलोचना है, ना कि किसी समुदाय के लोगों पर कोई आक्रमण. और यह अपने आप में कोई लक्ष्य भी नहीं है. राजनीतिक स्तर पर यह केवल एक गंभीर समस्या के व्यवहारिक कारणों की पड़ताल में उभरने वाला निष्कर्ष है: भारत में निरंतर जारी रहने वाले सांप्रदायिक तनाव का कारण इस्लाम है. आखिरकार, कोई भी दो समुदाय, धार्मिक अथवा अन्य, कभी आपस में उलझ भी सकते हैं, पर ऐसा कभी-कभार ही होता है, जबकि मुसलमानों और अन्य सभी धर्मावलम्बियों के मध्य तनाव हमेशा तीव्र और लगातार बने रहने वाली स्थिति है. बौद्धिक स्तर पर इस्लाम की यह आलोचना केवल धार्मिक बुनावट की एक केस स्टडी का प्रयास भर है, जो मानव के धार्मिक इतिहास के सामान्य अध्ययन और अन्वेषण का अंग है और जो आने वाले कल की वैश्विक सभ्यता में अविभाज्य मानव शिक्षा के लिए आधार का हिस्सा है. मैं स्वयं इस्लाम या अन्य किसी के ख़िलाफ़ किसी धर्मयुद्ध (crusade) में जीवन पर्यंत लगे रहने का कोई इरादा नहीं रखता. बात सिर्फ़ इतनी है कि हमें कुछ दखलंदाज और कपटपूर्ण विश्वास प्रणालियों के प्रति अपने भ्रम से अपने आप को मुक्त करने की आवश्यकता है और एक बार यह हो गया तो हम सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन के अधिक सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकेंगे.

और ठीक ऐसी ही बात सेकुलरवादियों के विरोध पर भी लागू होती है. असल समस्या विचार हैं, लोग नहीं. लेकिन जो लोग लगातार अपनी पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ अपने खोखले विचारों की डुगडुगी बजाते हुए विरोधियों को सिर्फ़ बदनाम करने को ही तत्पर दिखते हैं, तो इन लोगों को इन्हीं की भाषा में समझाने के लिए इनके विचारों की आलोचना के साथ कुछ नेम-टेग्स जोड़ना आवश्यक हो जाता है. इस किताब में मैंने इन सेकुलरवादियों को गहराई में डील किया है और कहीं भी इन्हें बख्शा नहीं है. ये लोग आधुनिकता, तार्किकता और लोकतंत्र के चैम्पियन होने का नाटक करते हैं और इसी वजह से तथ्यों की इनकी तोड़-मरोड़ इन्हें और भी अधिक अलोकतांत्रिक एवं अधिनायकवादी रंग देकर इनके विचारों को अस्वीकार्य बनाती है. इनका पर्दाफाश किया जाना जरूरी है और इस अप्रिय कार्य में मैंने अपना योगदान दे दिया है. मैं यही इरादा रखता हूँ, और ऐसी ही आशा करता हूँ कि इनके विरोध में खड़े होने का यह मेरे लिए अन्तिम अवसर साबित हो. एक बार हिंदू समाज इन हिंदू-विरोधी जोंकों को झाड़ कर अलग कर देगा, यानी इनके मानसिक प्रभाव से अपने आप को मुक्त कर लेगा, तो वह अपने समृद्ध खजाने को और विकसित कर मानवजाति के विकास में समर्पित करने एवं वास्तविक राष्ट्रीय एकता को प्राप्त करने की दिशा में ध्यान केंद्रित कर सकेगा.

दरअसल यह राष्ट्रीय एकता, जिसके कि बारे में भारत में हरेक व्यक्ति बात करता दिखता है, अपने आप में एक बहुत ही स्वाभाविक सी स्थिति है और कोई ऐसी चीज नहीं है जिसकी प्राप्ति किन्हीं विशेष प्रयासों की दरकार रखती हो. बल्कि आवश्यकता तो कुछ चीजों को छोड़ने की है. आवश्यकता है उन हिंदू-विरोधी अलगाववादी सिद्धांतों को धराशायी करने की जिनका निर्माण ही साम्राज्यवादी उद्देश्यों से किया गया है और अब जिन्हें तोड़-मरोड़ पूर्ण बौद्धिक एवं प्रोपेगेंदिस्त प्रयासों द्वारा जिलाए रखा जा रहा है. बस इस कुचक्र को तोड़ना होगा और राष्ट्र अपनी एकता को स्वाभाविक रूप से प्राप्त कर लेगा.

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इस लेख का अनुवाद मेरे अंदाजे से कहीं अधिक कठिन साबित हुआ है. मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए, जिसका हिन्दी और अंग्रेजी दोनों पर ही केवल सामान्य अधिकार भर है, और इस प्रकार के कार्य का कोई अनुभव भी नहीं, इस अनुवाद का कार्य वाकई समय खपाऊ रहा. अनुवाद का स्तर भी सामान्य से ऊपर नहीं उठ सका. फ़िर भी हिन्दी में इस लेख को देते हुए मुझे प्रसन्नता अनुभव हो रही है. वैसे यदि आप अंग्रेजी में कम्फर्टेबल हैं तो मूल लेख को अंग्रेजी में यहाँ पढ़ सकते हैं.


डॉ. एल्स्ट की कुछ किताबें एवं लेख नेट पर भी उपलब्ध हैं. इस साईट को देखें. बहुत बढ़िया सामग्री है.

26 comments:

Anonymous said...

सब कुछ बदलेगा. इस्लाम को भी बदलना होगा.
http://paliakara.blogspot.com

Gyan Darpan said...

इस्लाम को शान्ति और भाईचारे का रिलिजन बताकर उसकी सराहना करने की तो अनुमति है पर इस्लामी इतिहास और सिद्धांतों की छानबीन करना और उसे परखना, या केवल कुछ असुविधाजनक प्रश्न भर पूछना भी सोच से बाहर की बात है. उन किताबों पर जो इस दिशा में कार्य करती हैं, पाबंदी की सम्भावना रहती है और इसमें इन्हीं सेकुलरवादियों का मौन या प्रत्यक्ष अनुमोदन रहता है.

आपने कई लेखकों की हालत देखी होगी जिन्होंने ऐसी जरुरत की | इस्लाम में सहिष्णुता नाम की तो कोई चीज ही नही है और उसके किसी सिद्धांत के खिलाफ बोलना ईसनिंदा की श्रेणी में आ जाता है |

adil farsi said...

घोस्ट बस्टर बलाग पर डा0एल्स्ट को इसलाम धर्म में दोष ढूँढना ही आता है अपने अन्दर नहीं पहले बह अपने गिरेबान में झाँके फिर किसी पर कटाक्ष करें,इन में इतनी बुध्दि ही नही जो इसलाम को समझ सकें...आतंकवाद की असली जड तो ईसाई व यहूदियत है जिसके उदाहरण पूरे विशव में हैं जैसे यूरूप की साम्राजयवादी ताकतें बिर्टेन, फ्राँस ,नरपिशाच हिटलर उधर अमेरिका जिस ने जापान पर परमाणु बम बरसाऐ.....और बहुत ..।

Anonymous said...

इस्लाम ही नहीं कोई भी मजहब नहीं टिकेगा। सब के सब बेमानी हो चुके हैं और इंसानियत से बहुत दूर जा चुके हैं। हिन्दू एक मजहब नहीं जीवन पद्धति है, और इसी लिए टिकेगी। इस में व्यक्तिगत आस्थाओं के लिए स्वतंत्रता है और दूसरे की व्यक्तिगत आस्थाओं के लिए सम्मान। इस्लाम और ईसा के वे अनुयायी जो इस जीवन पद्धति को अपनाए हुए हैं वे सभी सम्मान के भी पात्र हैं। दुःख की बात यह है कि कुछ व्यक्ति और संस्थाएँ राजनैतिक और व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण हिन्दू जीवन पद्धति को एक धर्म में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहे हैं और यहीं वे इस का गला घोंट रहे हैं।

Arvind Mishra said...

बहुत उम्दा चिंतन और लेखन -आपने अनुवाद भी बहुत अच्छा किया है -बधाई !
इस्लाम चूंकि वैज्ञानिकता के विपरीत पूरी तरह से एक अंध दर्शन है -इसलिए चिरस्थायी नही है .अब कितने ही पढ़े लिखे मुसलमान भी इसके चलते अनकम्फर्टबल रहते हैं -इस्लाम की व्यापकता इसलिए ही रही है की सबसे ज्यादा अशिक्षा मुसलमानों में है -जैसे जैसे ज्ञान का चिराग वहाँ के घोर तमस को दूर करेगा इस्लाम का वजूद ख़त्म होता जायेगा जो पूरी मानवता के लिए शुभकारी होगा ,

Udan Tashtari said...

सिर्फ शुभकामना देने आये हैं आज!!

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

Vivek Gupta said...

सुंदर जानकारी | आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

drdhabhai said...

मैं इस्लाम विरोधी नहीं हूं ...पर मेरी भी मान्यता है कि इस्लाम एक अवैज्ञानिक धर्म पद्धति है...रही बात जीवन पद्धति कि तो वो तो कहीं से भी तार्किक नहीं है...चार पत्नियां..पचास बच्चे...अशिक्षा...कुल मिलाकर अंधकार यही तो है इस्लाम.भाईचारा जरूर होना चाहिये पर वो भी सिर्फ मुसलमानों में ..बाकी काफिरों को तो जितना मारोगे स्वर्ग मै सीट तो तभी पक्की होगी

अनुनाद सिंह said...

ऐसे ही अनेकानेक लेख आने से ही लोगों का महाभ्रम टूटेगा कि सभी धर्म 'अच्छाई' सिखाते हैं। कुरान और मोहम्मद (मोह + मद ) दोनो का खुले दिमाग से आलोचनात्मक अध्यन इस भ्रम को तोड़ेगा ।

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा है। इस्लाम के बारे में क्या कहूं? हां, हिन्दू जीवन पद्यति की उदारता, व्यापकता और उदात्तता में पानी नहीं मिलना चाहिये।

अगर हम आदिकाल से सर्वाइव किये हैं तो आगे भी रहेंगे।

Unknown said...

कोनराड एल्स्ट के विचार स्पष्ट एवं सारगर्भित होते हैं, मैने भी उनके कुछ अनुवाद किये हैं, उनकी पुस्तकें और लेख हमेशा पठनीय होते हैं…

Anonymous said...

अब तक,वामपंथियों की मदद से इस्लाम भारत पर एक प्रकार का आपातकाल थोपने में कामयाब रहा है. सही विश्‍लेषण।
विचारोत्‍तेजक लेख प्रस्‍तुत किया है आपने।

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

इस्लाम हो या कोई भी धर्म जिस मानसिकता से उसे समझेंगे वह आपको वैसे ही लगेगा . एक इसाई लेखक का लेख आज आपको अच्छा लग रहा है लेकिन पूर्वोतर राज्यों के इसाई जिन मैं से एक को भाजपा ने राष्ट्रपति का चुनाब लड़ाया था कहते है अगर गाय नहीं खाएँगे तो भूखे मर जायेंगे .

Anonymous said...

भाई आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये.
वास्तव में इसलाम को समझने के लिए आपको किसी इसाई लेखक की ज़रूरत नहीं इसलाम को समझना है तो इसलाम की पवित्र कुरान को पढो और समझो फिर आप किसी नतीजे पर पहुँचो और हाँ मेरे भाई ये हमेशा याद रक्खो हिन्दू कोई धर्म नहीं.धर्म है सनातन और हिंद में रहने वाला हर शख्श हिन्दू है जैसे नेपाल वाला नेपाली जापान वाला जापानी और अमेरिका में रहने वाला अमेरिकी पाकिस्तान में रहने वाला पाकिस्तानी.खैर आपको अगर बह्स ही करनी है तो आप डॉ.जाकिर नाइक के किसी प्रोग्राम में शिरकत कर सकते हैं वहां आप जैसे लोगों को ही बुलाया जाता है.वैसे उनकी कमुनिटी ज्वाइन कर के भी आप बहोत से सालों क जवाब प् सकते हैं.अल्लाह आपको हिदायत दे.

आपका हमवतन भाई गुफरान(ghufran.j@gmail.com)

Gyan Dutt Pandey said...

जाकिर नाइक एक अथारिटी हैं! वाह!

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

अच्छे लेख का सुन्दर अनुवाद।धर्म ईश्वर की तरह एक ही है‘सनातन वैदिक आर्य धर्म।बाकी जो भी हैं मत या मज़हब हैं।धर्म वही टिका है और आगे भी टिका रहेगा जो वैज्ञानिक हो और सनातन वैदिक आर्य धर्म की वैज्ञानिकता ही लाखों वर्षों से उसे जीवित रक्खे हुए है। ज़कीर नायक जो ड्रामा आज कर रहे है वैसा ही स्वाँग स्वामी दयानन्द के जमानें मे आगाखानियों ने भी खूब किया था और मुँह की खायी थी।वास्तविक खतरा तो सत्ता लोलुप नेंताओं,भ्र्ष्ट एवं बिके हुए तथाकथित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों से है।

Anonymous said...

सैकड़ों तौकीर, अबू बशर, सलीम, अंसार, इफ़्तेख़ार, अफ़ज़ल हमारे बीच आज भी मज़े से घूम रहे हैं। हमारे निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, अपंग बना रहे हैं। सरकार इनको पकड़ने की बजाय इनके सामने षाष्टांग प्रणाम कर रही है। हम क्या करें? हथियार उठाने के अलावा कोई और रास्ता बचता है क्या? साध्वी ने जो किया प्रतिक्रियावाद था। मैं तो कहूँगा आपद्धर्म है। यानी विपदा के समय अपनाया जाने वाला धर्म। हम सबको, पूरी कौम को यही धर्म अपनाना पड़ेगा। तभी हम इन देशद्रोहियों से पार पाने में सफल होंगे।

Anonymous said...

किसी ईसाई लेखक के निचोड़ से इस्लाम न तो खत्म होने जा रहा है और न होगा। मैं नहीं कहता कि दुनिया में सिर्फ इस्लाम धर्म ही अच्छा है। इस ब्लॉग के संचालक और उस ईसाई लेखक को कुरान जरूर पढ़ना चाहिए तभी उसके कुंठित विचारों को सही दिशा मिल सकेगी। कुरान का हिंदी अनुवाद सभी जगह उपलब्ध है। कोई भी उसे पढ़कर किसी भी नतीजे पर पहुंच सकता है। मेरे या किसी मुसलमान द्वारा राम को गाली देने से राम का कद छोटा नहीं हो जाएगा और न ही वाल्मीकि या तुलसीदास की रामायण फर्जी साबित हो जाएगी। यह तो मेरी सोच होगी जो उसी तरह सोचेगी और उसे ही सही मानेगी। किसी भी धर्म में कमी निकालना बहुत मामूली बात है। मैं यह भी नहीं कहना चाहूंगा कि दुनिया के नक्शे पर इस्लाम कहां-कहां फैला हुआ है और हिंदू धर्म कहां-कहां फैला हुआ है। इसी लेख की प्रतिक्रिया में किसी भाई ने जिक्र किया है कि अमेरिका ने जापान पर जो परमाणु बम गिराया, वह क्या था। हिटलर ने किन-किन देशों पर हमले किए, बहुत पुराना इतिहास नहीं है। अमेरिका आज जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक में जो कुछ कर रहा है क्या उसे बताने की जरूरत है? हम भारतीयों में एक कमी है कि अगर कोई अंग्रेज तुलसीदास को चोर बता दे तो हम भी ऐसा ही मान लेंगे और उसका उदाहरण देकर बताएंगे कि देखो, फलां अंग्रेज ने भी यही बात कही है। समझ का फेर है। भारत भी हमेशा रहेगा और हिंदू और मुसलमानों का धर्म भी उसी तरह फलता-फूलता रहेगा।

जितेन्द़ भगत said...

जानकारीभरी पोस्‍ट रही। | आपको दीपावली की हार्दिक बधाई।

admin said...

अगर हिंदू इस्लाम के मूल ग्रंथों का संज्ञान ले लें, वास्तव में जिन सिद्धांतों का ये प्रतिपादन करते हैं उसे समझ लें, पैगम्बर के मिशन और कैरियर की कहानी को जान लें और भारतवर्ष पर इस्लाम के हमलों और प्रभुत्व में इन सिद्धांतों के अनुप्रयोग की असली कहानी को समझ लें, तो वे इस साम्राज्यवादी विचारधारा के यशोगान की अपनी आदत से जल्दी ही छुटकारा पा जायेंगे.

मुझे तो उक्त विचार अतिवादी ही लग रहे हैं। इसमें मूल ग्रन्थों में किन ग्रन्थों का संज्ञान लेने की बात की गयी है, यदि उन्हें भी बताया गया होता, तो शायद सामान्यज्ञान में थोडी सी और वृद्धि होती।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

आपको सपरिवार दीपोत्सव की शुभ कामनाएं। सब जने सुखी, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। यही प्रभू से प्रार्थना है।

Anonymous said...

हमारे देश में एसा लिखित में कहना बहोत हिम्मत का काम है, में ये नहीं कह रहा के आपसे सहमत हूँ... ना ये के आपने ट्रांसलेशन किया है उस आदमी की किताब से जिसके खून में दोनों सभ्यताओं के पूर्वज के गुन अवगुण नहीं मिलते... सो वो केवल समीक्षा कर सकता है.. हम अपने बारे में खोजबीन करने के बजाये तरक्की के रस्ते खोजने में जुटे रहते हैं जबकी वहां के फुरसतिये हर पठार हर पत्ते के निशानों का मतलब धुंडने निकल पड़ते हैं और उससे भी उनकी रोज़ी रोटी चल जाती है. वैसे एसे ही आड़ा टेड़ा थोड़ा इधर थोड़ा उधर मतलब अवरेज में लगभग कन्क्लुज़न निकाल लेने वाले लोगो की ही वजह से आज हमारे पास इलेक्ट्रोनिक सुख सुविधा है, आसमान से इतना डर नहीं लगता हमको क्योंकी उम्मीद है वो जो एसी बातो को खोजने में लगे रहते हैं ज़रूर खतरे से बचाने का जरिया खोज लेंगे आड़े वक्त में ... वैसे सही मायने में आपकी इस पोस्ट को पढ़ ही नही पाया थोड़ा अजीब लगा के मैं क्या पढ़ रहा हूँ... वैसे एक बार हिन्दी में कुरान पढ़ने की कोशिश की थी मेने उसे पड़ने से पहले लगा था के में एक महान और शायद सबसे बड़ी विचारधारा को समझने जा रहा हूँ उसके लिए थोड़ा सम्मान की भावना जागने लगी थी तब तक जब तक की मेने उसे थोड़ा पढ़ नहीं लिया,,,, कुछ अच्छा फील नहीं हुआ पढ़कर क्योंकि मेरी एक्सपेक्टेशन बहोत ज़्यादा थी उससे, क्योंकी इतना प्रसिद्द और पवित्र ग्रन्थ अपने में लगभग आधी दुनिया तो समेटे होगा ही... भले ही बाकि सारे धर्मों की तरह कलाप्नाओं पर आधारित लेकिन उस वक्त के महानतम बुद्धिजीवी विचारकों के विचार काफी प्रभावशाली रहे होंगे पर मेने वैसा कुछ भी नहीं पाया... वैसे में बता दूँ हिंदू पंडित परिवार से होने के बावजूद में हस्ता हूँ हिंदू धर्म पे, उसके ढकोसले, एंड सनद कहानियो पर, अतार्किक मान्यताओं पर... पर कुछ चीज़ें हैं जो व्यापक दिखाई देती हैं जैसे कल्पनाशीलता, उपदेशों की तार्किकता से बहोत प्रभावित हुआ में जब मेने उन्हें एक बार पढ़ा... भले ही धर्म में आस्था नहीं जगी मेरी पर में मान गया धर्म विचारधारा को गढ़ने वाले उतने बेवकूफ नहीं थे जितना में समझता था... बहोत तगडी महनत और कल्पनाशीलता का प्रयोग हुआ है पुराने ग्रंथों में, मैं मान गया की मेरी इतनी औकात नहीं के उन महान विचारकों की बुराई करू जो उस आदि काल में ऐसी व्यापक कल्पनाशक्ति का प्रयोग करके इतना बड़ा तार्किक ग्रन्थ लिख सकते हैं... हलाकि उसमें मेरी बिल्कुल आस्था नहीं है पर उन्हें लिखने वाला ज़रूर इत्ज़त का पात्र है... यही देखकर मेने बैबल और कुरान को पड़ने की कोशिश की क्योंकी में समझता था के शायद ये तो और भी पुराने और बहोत बड़ी आबादी की विचारधारा हैं तो बहोत प्रभावित कर देने वाले तर्क लिखे होंगे इनमें जो मुझे पुराने ग्रन्थ और मान्यताओं के लिए मन में एक इत्ज़त रखने के लिए मजबूर कर देंगे पर मुझे बहोत दुःख हुआ के जब मेरे एक्सपेक्टेशन पूरी नहीं हुयी... पर मेरा मन इस बात को स्वीकार नहीं कर रहा के इतने पुराने महा ग्रन्थ पवित्र ग्रन्थ मुझे प्रभावित नहीं कर रहे जिसमें से बाईबिल तो पूरी तरह आदिवासियों द्वारा लिखी दिखाई देती है जिसके लिए इत्ज़त उभरे ऐसा कुछ कमाल का नहीं है उसमें, और कुरान को शायद में समझ ही नहीं पाया के आख़िर एसा क्या है उसमें जो उसे पवित्र और महान बनाता है जो मुझे समझ नहीं आया.... अगर आपमें से कोई कुरान का बंद हो जो मुझे इसके सही सम्मान से मुझे अवगत कराय तो मैं उसका बहोत आभारी रहूँगा मेरा ई-मेल :- dingloble@gmail.com

zeashan zaidi said...

मैं एल्स्ट के विचारों से पूरी तरह असहमत हूँ. अगर सभी झगडों की जड़ इस्लाम होता तो आज दुनिया के सारे इस्लामिक देश झगडों के बीच पिस रहे होते. लेकिन दो चार को छोड़ कर सभी जगह शान्ति है. यह भी ग़लत है की इस्लाम non-muslims को मारने की बात करता है. क्या साउदी, ओमान, या अफ्रिकंस मुस्लिम देशो में non-muslims शान्ति के साथ नहीं हैं? बहुत से भारतीय भी इन देशों में शान्ति के साथ नौकरी और कारोबार कर रहे हैं. हाँ यहाँ पर ग़लत कामों की सख्त सजाएं भी हैं. लेकिन यह सभी के लिए हैं. अब आइये उन देशों की बात करें जहाँ फसाद फैला है. फिलिस्तीन तो अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा है. इराक और अफगानिस्तान की दशा के लिए अमेरिका जिम्मेदार है. पहले उसने इरान और रूस को हानि पहुंचाने के लिए इन्हे मदद दी और फ़िर इन्हीं को आतंकवादी बना दिया. पाकिस्तान और भारत तो सदा के दुश्मन रहे हैं. रही बात भारत की तो यहाँ हमेशा से लड़ने भिड़ने की आदत रही है. इसके लिए इस्लाम को क्यों दोष दिया जाए. क्या बाबर से पहले यहाँ लड़ाईयां नहीं होती थीं? भारत में मुसलामानों की बुरी दशा के लिए भी यहाँ मुस्लिम लीडरशिप और ख़ुद मुस्लिम ज़्यादा जिम्मेदार हैं.

Anonymous said...

मैं इतना समझदार नहीं की मन की भड़ास निकलने के लिए सही जगह तलाश सकूं इसलिए प्रेशर में आकर यहीं सब उडेल देता हूँ.... बहोतों को आहत करेगी पर मैं भी आहत हूँ टीस तो निकलेगी ही... चाहे तो मेरे खिलाफ फतवा निकल दो..... फाड़ के चिंधी चिंदी कर दूँगा उसे....

दूर देश के मुसल्लिमों के लिए आंखों में तुम्हारे अक्सर नज़र आ जाते हैं आँसू मियां.... इतनी संवेदनशीलता तुम्हारे मन में औरों के लिए क्यों नहीं है... क्या तुम नहीं जानते के अगर मुसल्लम धर्म दूर दूर पंहुचा है तो इसकी वजह यह नहीं की वो दुनिया भर का धर्म है.... वजह यह है की तुम लोग अपना घर अपनी मिट्टी छोड़कर दुनिया पर अपना धर्म थोपने निकल पड़े थे. और क्रूरता से थोपा भी... ऐसा ही ईसाइयों ने किया पर उन्होंने इसके लिए विचार बदले.... ना के तुम्हारे तरह कत्ले आम किया.... तुम्हारी सोच पहले से ही संकीर्ण और अपने घमंड में मस्त रही है, दूसरों की इत्ज़त करनी तुम्हे आती ही नहीं.... हम तुम्हारे अस्तित्व को नहीं नकारते ना नकार सकते हैं तो तुम क्यों चाहते हो हमारा वजूद उस चूतिये के लिए लहूलुहान करना जिसने ना हमें कुछ दिया है ना तुम्हे.... ये सब क्या ढोंग है मिया, इस्राईल की मिट्टी पर पहले मुसलमाओं ने वार किया उसपर अपना धार्मिक झंडा फहराया. उनके धर्म उनकी आस्था को तुमने तार तार किया, बेचारे तो वो थे जिन्होंने तीन बार मुकाबला किया और आख़िर को वापस छीन ली अपनी मिट्टी और आजाद हो गए... तो अब ये मलाल क्यों, वो अपनी जगह खुश हैं दुनिया अपनी जगह खुश है... तो तुम्हारी कॉम को क्यों खुजली चलती है तुम उन्हें-हमें क्या राक्षस समझते हो... जो जहाँ तहां तुम्हारी कॉम पर बम पटाखे फेंकते रहते हैं.... जो असल में तुम्हारे कट्टर पैगम्बरी ठेकेदार किया करते हैं.... तुमने दुनिया भर में राज फैलाने की कोशिश की मन्दिर तोडे, अपनी ताकत के दम पर यहाँ के सरपरस्त बने.... हम उन यादों को मन में शूल की तरह घुसेड़ कर नहीं रखते वरना तुमसे ज़्यादा आतंकवादी हम भी पैदा कर सकते हैं... लेकिन हम वो सब भूल जाना चाहते हैं जो भी तुमने किया हम भूल जाना चाहते हैं के तुमने हमारी आस्था की कितनी निशानियाँ कुचलकर बरबाद कर दी.... ... पर जब अंग्रेजों ने जैसे को तैसा दिया, तुम्हारी ही तरह दुनिया को कब्जे में किया तो हाथ से सत्ता जाती देख कर तुम्हारे सीने पर पर सौंप लौटने लगे.... अपने बच्चों को कितनी बेशर्मी से कहते फ़िर रहे हो की दुनिया ने तुम पर अत्याचार किया है याने के सो चूहे खाकर बिल्ली हज को जा रही है..... अबे तुम यहाँ आए अपनी ताकत के दम पर हमारे मंदिरों के ऊपर मस्जिदें बनाईं, अब हमने उनमें से एक हटा दी तो तुम्हारी जल रही हैं... इस्राइल पर इल्सम के नाम पर इतने सालों से हमास हमले करता आ रहा है, लेकिन जब उन्होंने पलट कर ताक़तवर जवाब दिया तो फ़िर तुम्हारे सीने पर सांप लौटने लगे.. तुम एक मारो तो वो तुम्हारी ताकत है पर जब हम पलटकर जवाब दें और तुम्हारा भी एक मार गिराएँ तो तुमपर अत्याचार हो गया, वो भी यहाँ नहीं दुनिया भर में.. सालों चूल्हे में जाओ पूरी कॉम समेत धरती को बख्श दो. चले जाओ तुम्हारे अल्ला की जन्नत में हमें क्या... पर हमें आँखें ना दिखाना... नोच लेंगे... कमीनों दुनिया मोटी की तरह बिखरी हुई थी सुंदर सुंदर अबोध सी न्यारी अपनी अपनी संस्कृतियों से रंगीन थी ये धरती.... पर तुमसे और तुम्हारे अल्ला से देखा नहीं गया उन मोटी रूपी सभ्यताओं को अपने रंग में रंग डाला..... हर जगह कट्टरवाद बईमानी कमीनापन फैला दिया अपनी गंदी सोच को अपने रेगिस्तान में ही संभल कर रखते हमें उसकी ज़रूरत नहीं थी.... तुमने हमारी संस्क्रती को भी बरबाद कर दिया.... और घडियाली आसूं बहा रहे हो. पहले जो किया सो छोडो अब तो दुनिया को चैन से जीने दो कमीनों .....

Mohammed Umar Kairanvi said...

समझदार को इशारा काफी होता है, अल्‍लाह के चैलेंजों को पढ़ो, सैंकडों साल से हमें जवाब का इन्तज़ार है, आसानी के लिए मेरे ब्‍लाग पर फिलहाल 6 चैलेंज हैं, islaminhindi dot blogspot dot com वहीं धर्म को समझने के लिए पुस्‍तक आपकी अमानत आपकी सेवा में भी देखो फिर हमें बुरा भला कहना,

Saleem Khan said...

किसी ईसाई लेखक के निचोड़ से इस्लाम न तो खत्म होने जा रहा है और न होगा। मैं नहीं कहता कि दुनिया में सिर्फ इस्लाम धर्म ही अच्छा है। इस ब्लॉग के संचालक और उस ईसाई लेखक को कुरान जरूर पढ़ना चाहिए तभी उसके कुंठित विचारों को सही दिशा मिल सकेगी। कुरान का हिंदी अनुवाद सभी जगह उपलब्ध है। कोई भी उसे पढ़कर किसी भी नतीजे पर पहुंच सकता है। मेरे या किसी मुसलमान द्वारा राम को गाली देने से राम का कद छोटा नहीं हो जाएगा और न ही वाल्मीकि या तुलसीदास की रामायण फर्जी साबित हो जाएगी। यह तो मेरी सोच होगी जो उसी तरह सोचेगी और उसे ही सही मानेगी। किसी भी धर्म में कमी निकालना बहुत मामूली बात है। मैं यह भी नहीं कहना चाहूंगा कि दुनिया के नक्शे पर इस्लाम कहां-कहां फैला हुआ है और हिंदू धर्म कहां-कहां फैला हुआ है। इसी लेख की प्रतिक्रिया में किसी भाई ने जिक्र किया है कि अमेरिका ने जापान पर जो परमाणु बम गिराया, वह क्या था। हिटलर ने किन-किन देशों पर हमले किए, बहुत पुराना इतिहास नहीं है। अमेरिका आज जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और इराक में जो कुछ कर रहा है क्या उसे बताने की जरूरत है? हम भारतीयों में एक कमी है कि अगर कोई अंग्रेज तुलसीदास को चोर बता दे तो हम भी ऐसा ही मान लेंगे और उसका उदाहरण देकर बताएंगे कि देखो, फलां अंग्रेज ने भी यही बात कही है। समझ का फेर है। भारत भी हमेशा रहेगा और हिंदू और मुसलमानों का धर्म भी उसी तरह फलता-फूलता रहेगा

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