Sunday, May 18, 2008

भगवान कभी इनकी भी सुने.........मगर कैसे?


इंटरनेट दुनिया में विचरण करते समय अक्सर एक बात नोट की है। ब्लॉग्स पर, विशेषकर भारतीय ब्लॉग्स पर मेट्रीमोनियल एड प्रचुरता में दिखते हैं। इंश्योरेंस के साथ साथ सबसे ज्यादा दिखने वाले विज्ञापन यही हैं। शायद लोग इनका लाभ भी लेते ही होंगे।

विज्ञापन की खिड़कियों से झांकते ताजा तरीन चेहरे एक बारगी तो ध्यान खींच ही लेते हैं. वो तो श्रीमती जी से झिड़की खाने का डर न होता तो शायद कॉपी करके किसी फोल्डर में रख लेने की भी सोच लेते।

सच में इंटरनेट ने बड़ी सुविधा जुटा दी है. चट से रजिस्टर करो और फट से 'रिश्ते ही रिश्ते'। ना हुई ये सहूलियत गुजरे ज़माने में, वरना 'मनमौजी' जैसे जिंदा-दिल, घर बसाने के लिए क्या ऐसे ही तरसते रहते? रो गाकर भगवान से दिन रात यही मांगते-


तुम गधा कहो या मूर्ख कहो,
चाहो तो मुझको धूर्त कहो,
पर मैं तो ऊपर वाले से-
वरदान एक ही मांगूंगा-

तुम गोरी दो या काली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

लम्बी दो, अथवा छोटी दो,
अच्छी दो, अथवा खोटी दो,
चाहे चपटी सी रोटी हो,
या टुनटुन जैसी मोटी हो.

हल्की-पतली सी डाली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

वह दफ्तर भी क्या दफ्तर है,
जिसमें न टाइपिस्ट गर्ल हुई,
वह लड़का भी क्या लड़का है,
जिसके न साथ हो 'छुई-मुई'.

असली दो अथवा जाली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

चाहे रेशम की चद्दर हो,
टेरेलिन हो या खद्दर हो.
चाहे वह हो बंदरिया-सी,
अथवा हो रीता फरिया-सी.

क्वारी या बच्चे वाली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

मदरासिन दो, गुजरातिन दो,
अथवा पक्की पंजाबिन दो,
स्वीकार महाराष्ट्रिन कर लूँ,
अथवा बांकी बंगालन दो.

बूढी, युवती या लाली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

मित्रों! मुझको घरवाली बिन,
जीवन कुत्ता-सा लगता है.
मेरी कविता का गुलदस्ता,
कुक्कुरमुत्ता-सा लगता है.

खाली दो, प्रतिभाशाली दो,
भगवान मुझे घरवाली दो।

- उमाशंकर 'मनमौजी'

लेकिन देश में घटते लिंगानुपात के निर्मम और कुरूप आँकड़े जो तस्वीर बयान करते हैं, उसका क्या? बेहद शर्मनाक स्थिति है। महिला भ्रूण हत्याओं ने प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं का आंकडा सिर्फ़ ९२७ पर पहुंचा दिया है। तो बाकी के प्रति हजार ७३ पुरुष तो बस मांगते ही रह जाने वाले हैं.

18 comments:

Udan Tashtari said...

क्या मोड़ दिया है...कहाँ वो कविता और कहाँ बाद के भावुक आंकड़े :)

फोटू जबरदस्त लगाये हो भाई!! शुभकामनायें और बधाई.

Gyan Dutt Pandey said...

आंकड़े ऐसे ही गिरते रहे तो द्रौपदी-युग की वापसी तय है। उसकी अलग नैतिकता होगी और अलग "मनमौजी" कविता।
देखें आगे क्या होता है!

Unknown said...

बहुत सुन्दर! भइ मजा आ गया। गोपाल प्रसाद 'व्यास' जी की "साली महिमा" के बाद अब हमारे प्रिय कविताओं में उमाशंकर 'मनमौजी' जी की "घरवाली महिमा" भी जुड़ गया।

अनूप शुक्ल said...

धरवाली है फ़िर भी ये कविता! ये अच्छी बात नहीं जी।

Rajesh Roshan said...

इसी को कहते हैं ह्यूमर के साथ सेंसिटिविटी. बेजोड़

Sanjeet Tripathi said...

कहां शुरु कर कहां अंत किया , सटीक एकदम!!

ghughutibasuti said...

लेख पसन्द आया। कविता व आँकड़ों का प्रयोगकर एक भयावह समस्या की ओर ध्यान खींचा है।
घुघूती बासूती

note pad said...

हे हे हे ...यही विडम्बना है जीवन की ...पहले घरवाली घरवाली की दुहाई और फिर उससे छुटकारे की अपील ....

सागर नाहर said...

बेहद चिन्ताजनक।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

मनमौज़ी पोस्ट और मनमौज़ी कविता
लेकिन महारथ इस बात की क़ाबिले गौर है
कि आपने मुद्दे को आँकड़ों की आँख दे दी है !
============================
देर से आप तक पहुँचा परंतु लग रहा है
पहुँचे हुए मक़ाम तक पहुँच गया !

शुक्रिया
डा.चंद्रकुमार जैन

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Nice post - reveals a bitter truth about the inherent problems & mind set prevelant among Indians
- Lavanya

pallavi trivedi said...

एक आनंद दायक कविता को आपने बहुत ही सार्थक अंत दिया...बधाई.

अजित वडनेरकर said...

अरे वाह, आप तो फुलस्पीड पर हैं !!
ज्ञानवर्धक और आनंददायक । ये दोनो ही कर्म पत्रकारों के हैं मगर इधर आजकल नज़र नहीं आ रहे हैं रिसालों में :(

Unknown said...

http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/828180.stm

एक लिंक यह भी रहने दें...अंदाज़ पसंद आया

PD said...

नहीं नहीं करते हुये भी श्रीमती जी से छुपा कर कुछ फोटो सेव कर ही लिये थे जिसे अपने ब्लौग पर चिपका भी दिया..
सही है..
सही है.. :)

Kirtish Bhatt said...

आपकी पोस्ट के लिए वाह!
कविता के लिए वाह! वाह!
और आंकडों के लिए आह

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत जबरदस्त रिपोर्ट है और उससे मजेदार कविता। भइये, आप तो छा गये।

Suvichar said...

कविता बहुत सुंदर है, आंकडे भी जबरदस्त.

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