Thursday, September 4, 2008

अभय जी, आतंकवादियों को हीरो साबित करना कहाँ तक सही है?

हिन्दी चिट्ठाजगत में शायद ही कोई हो जो ईस्वामी की विविध विषयों पर गहरी पकड़ और भाषा में विचारों की अद्भुत सम्प्रेक्षणीयता का कायल न हो. मेरी पिछली पोस्ट पर उनके कमेन्ट में भी यह गुण साफ़ झलकते हैं. लेकिन उनकी और श्री अशोक पाण्डेय जी की टिप्पणियां बताती हैं कि मैं स्वयं अपनी बात को ठीक तरह से रखने/समझाने में शायद विफल रहा हूं.

पहले ईस्वामी की बात लेता हूं. सबसे पहले ये बता दूं कि मैंने पहले ही अभय जी के लेखों का प्रिंट आउट निकाल लिया था. इन बीस पेजों को मैं कई बार पढ़ चुका हूं.

अब जरा कुछ तथ्य ठीक किए जाएँ, अभय जी ने तीन नहीं बल्कि चार लेख लिखे हैं और ये चौथा ही लेख है जिसपर मुझे सबसे ज्यादा आपत्ति है क्योंकि उसमें आतंकवादियों का खुलकर समर्थन किया गया है और अहमद यासीन जैसे आतंकवादी सरगना को हीरो बनाकर पेश किया गया है. जरा अभय जी के शब्दों पर गौर कीजिये:
"उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया।"
ये कौन सा तरीका है दहशतगर्दों की हरकतों को देखने का? ये खुद्कुश बम आख़िर कहाँ फटते हैं? रेस्तौरेंट्स में आम नागरिकों के बीच, या स्कूलों में मासूम बच्चों के चीथड़े उड़ाने के लिए. अभय जी की नजरों में ये बड़े शान की बात होगी, लेकिन मैं तो इस मानसिकता पर लानत ही भेजूंगा.

ईस्वामी जी, आपको ये लेख संतुलित लगे हैं, वो आपका नजरिया है. मगर मुझे शक है कि इसमें कहीं आपका इस्राएलियों से कोई व्यक्तिगत इंटरेक्शन तो कोई भूमिका अदा नहीं कर रहा? चीजों को निष्पक्ष होकर देख पाना वाकई कठिन होता है. तठस्थ रहने पर दोनों ही पक्षों की खूबियाँ और खामियां इस कदर दिखाई देंगी कि फ़िर चार-चार लम्बी पोस्ट लिखने की कोई सोचेगा, इसमें मुझे शक है. इस तरह के लेख लिखने के लिए ऊर्जा तभी मिलती है जब किसी एक पक्ष के प्रति आपका झुकाव हो.

आपने और अशोक जी ने भी जोर दिया है कि व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी से दूर रहा जाए. मेरा भी बिल्कुल यही मानना है. लेकिन आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि व्यक्तिगत कमेन्ट मैंने नहीं बल्कि अभय जी ने मेरी और उछाले हैं. मैंने उनकी पोस्ट पर अपनी पहली टिप्पणी में उनके लेखन पर मार्क्सवादी प्रभाव की ओर इशारा किया था, बदले में उन्होंने मुझपर अपना प्रसिद्ध प्रश्न दाग दिया, "आप ये तो नहीं मानते......" ये किसी के चरित्र पर ऊंगली उठाना नहीं है तो क्या है? अपने एक अन्य कमेन्ट में मैंने उनके लेखों की निष्पक्षता पर शक जाहिर किया तो उन्होंने मुझे मुस्लिम विरोधी, सांप्रदायिक वगैरह कह दिया. दूसरी ओर अगर आप मेरे कमेंट्स या मेरी पिछली पोस्ट में भी ढूंढेंगे तो कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं पायेंगे. मूल स्वर तो वामपंथी विचारों के खोखलेपन के विरोध का है, अभय जी तो सिर्फ़ एक प्रतिनिधि चेहरा हैं. पिछली पोस्ट का तल्ख़ शीर्षक भी अभय जी की टोपी उन्हीं के सर पर रखने का सिर्फ़ एक व्यंग्यात्मक प्रयास भर था. मुझे अफ़सोस है कि ये बात ठीक से संप्रेषित नहीं हो सकी. वो मेरी लेखनी की कमजोरी कहलाएगी.
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अब कुछ बात अभय जी के लेखों और मैं इन्हें स्तरीय क्यों नहीं समझता इस पर.

मध्यपूर्व का ये इस्राइल-अरब विवाद इस कदर विराट रूप ले चुका है कि तीसरे विश्व युद्ध का खतरा पैदा हो गया है. ईरान द्वारा परमाणु बम बनाने की तैयारी के चलते स्थिति कभी भी विस्फोटक रूप ले सकती है. खाड़ी के लगभग सभी मुस्लिम देश इस्राइल को दुनिया के नक्शे से मिटाने से कम पर राजी ही नहीं हैं. ऐसे में इस्राइल आत्मरक्षा के लिए कोई भी बड़ा कदम उठा सकता है, जैसे कि ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों पर हमला करना. अगर कहीं ऐसी स्थिति सचमुच बन गयी तो हम सब क्या इसके परिणामों से अछूते रह पायेंगे? इसलिए इस भयावह समस्या को बारीकी से जानना-समझना जरूरी है. अभय जी जब ऐसी पहल करते हैं तो एक आशा बंधती है, मगर बहुत जल्दी निराशा में बदल जाती है.

शुरुआत करें अभय जी के इस बयान से -
"अफ़सोस की बात ये है कि हम पहले तो पढ़ते नहीं, पढ़ते हैं तो और बहुत कुछ पढ़ते है पर इतिहास नहीं पढ़ते और यदि इतिहास भी पढ़ते हैं तो ऐसा इतिहास पढ़ते हैं जो तथ्यों और साक्ष्यों पर नहीं बल्कि क्लेशों, कुण्ठाओं और कोरी कल्पनाओं पर आधारित है।"
जब आप अपनी बात इन शब्दों के साथ शुरू करते हैं और पाठकों को आमंत्रित करते हैं कि आइये हम इस विवाद के विषय में आपकी जानकारियों में इजाफ़ा करें, तो अपने ऊपर कहीं एक बड़ी जिम्मेदारी भी ओढ़ लेते हैं कि पाठक को वाकई तथ्यों की जानकारी साक्ष्यों समेत मुहैया करवाएंगे. लेकिन अभय जी अपने लेखों में जो जानकारी देते हैं क्या कोई साक्ष्य जुटाते हैं? चारों लेखों में हम एक अदद लिंक के लिए तरस जाते हैं. आख़िर किस आधार पर ये सब बातें कही जा रही हैं और इन जानकारियों का मूल स्त्रोत क्या है, ये बताना जरूरी नहीं है क्या? यहीं लेखों की निष्पक्षता सवालों के दायरे में आ जाती है.

(जारी है. अगली बार याहुदी-मुस्लिम समस्या का प्रारंभिक इतिहास और अभय जी का ऐतिहासिक तथ्यों से बचते हुए पतली गली से सरकना)

15 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

इज्राइल छोटा सा मुल्क; तेल के पैसे पर मौज करते और दुनियॉ को आतंकित करते अरब महन्त देशों को सबक दे रहा है।
इनका तेल खतम हो तो दुनियां में निरर्थक ताण्डव समाप्त हो! उसके बाद इस्लाम अगर जीवित रहे तो अपनी स्ट्रेंथ पर और जाये तो अपनी हठधर्मिता पर!
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आपके आगे के लेख की प्रतीक्षा है।

संजय बेंगाणी said...

पांडेजी की टिप्पणी से सहमति.

आप जारी रखें.

Arun Arora said...

हम भी सहमत

Shiv said...

देखिये जी. ये तो बहस का विषय है. लेकिन बहस का परिणाम? अभय जी तीर चलाएंगे. उनके जवाब में आप भी तीर चलाएंगे. तीर से तीर काटने का प्रयास होगा. कौन से क्षितिज पर दोनों मिल सकते हैं? शायद नहीं मिलें. जिन्हें अभय जी शहीद बता रहे हैं, उन्हें आप आतंकवादी समझते हैं. एक ही मुद्दे पर दोनों एक्सट्रीम पर हैं. वैसे भी इतिहास पर बहस सदियों से होती आई है. एक बहस और सही. ये कोई आखिरी बहस नहीं होगी. कुछ लोग आपका पक्ष लेंगे. कुछ लोग अभय जी का पक्ष लेंगे. लेकिन निष्कर्ष क्या निकलेगा?

आप में से कोई भी अपने विपक्षी को ग़लत साबित नहीं कर पायेगा. इतिहास चाहे अरब-इजराईल का हो या फिर चीन-जापान का, सब जगह बहस चलती ही रहती है. और तो जाने दीजिये, स्पेन जैसे छोटे से देश के इतिहास पर हो रही बहस ढेर सारी समस्याओं की जड़ बन चुकी है. ऐसे आप दोनों की ये बहस भी कुछ दिन ब्लॉग जगत की सुर्खियों में रहेगी. फिर आप दोनों बोर होकर नई पोस्ट लिखकर आगे बढ़ जायेंगे.

मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि हर बहस का एक निष्कर्ष निकलना ज़रूरी है, लेकिन ये ज़रूर पूछना चाहता हूँ कि इस तरह की बहस कितनी ज़रूरी है?

किताबें पढ़कर ब्लॉग-पोस्ट पर अंश उधृत करके विद्वान होने का भ्रम पैदा किया जा सकता है. ये करना बड़ा सरल है. भूत और भविष्य की बात पर बहस करने के लिए विद्वान बैठे हैं. जिन्हें बहस करने के पैसे मिलते हैं. जिन्हें इतिहास 'लिखने' के पैसे मिलते हैं. जिन्हें इतिहास बिगाड़ने के पैसे मिलते हैं. जिन्हें विपरीत विचारधारा वालों में तिलमिलाहट पैदा करने के पैसे मिलते हैं.

हम और आप जैसे लोग अपना वर्तमान देखें, वो शायद ज्यादा ज़रूरी है.

Ghost Buster said...

शिवकुमार जी: शिव जी, मैं अचंभित हूं कि आप तो किसी भी बहस के महत्त्व को ही सिरे से खारिज कर रहे हैं. बहस तो लोकतंत्र की एक आधारभूत इकाई है. परिणाम? वो तो बाद में ही जाने जा सकते हैं. लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि लोगों को दोनों पक्षों को जानने और तदनुसार अपने विचार बनाने का अबसर मिलता है.

आपने कहा कि कुछ समय बाद हम दोनों ही इससे ऊब जायेंगे और नयी पोस्ट लिखने बैठ जायेंगे. ये बात तो पूरे ब्लॉग जगत के बारे में भी कही जा सकती है. ब्लॉग एक नयी विधा है तो सभी लोग इसकी तरफ़ आकर्षित हैं. यकीनन कुछ समय बाद लोग ब्लॉग के विचार से भी ऊब महसूस करने लगेंगे. तो क्या आज से ही ब्लॉग लिखना बंद कर देना चाहिए?

और यहाँ कोई तीर-तलवार वाली बात नहीं है. यकीन मानिए मेरे मन में अभय जी के प्रति श्रद्धा है, जो उनकी अनेकानेक पोस्ट्स पढ़कर प्रगाढ़ हुई है. एक आध मुद्दे पर असहमति से होने वाली थोड़ी बहुत खींच-तान से उसमें कोई कमी आने वाली नहीं है. मेरी पिछली पोस्ट को उन्होंने स्वयं अपनी टिप्पणी से नवाजा था. क्या ये इस बात का संकेत नहीं है कि इस बहस के कोई बदसूरत शक्ल अख्तियार कर लेने की संभावना नहीं है? आप निश्चिंत रहिये.

दिनेशराय द्विवेदी said...

घोस्ट बस्टर जी,बहस होनी चाहिए, क्यों कि प्रत्यक्ष रूप से कोई अन्तिम निष्कर्ष न निकले। मगर मेरे जैसे विद्यार्थियों को बहुत कुछ आसानी से सीखने को मिल जाता है। अभी सीखने की अवस्था में हूँ। जब थोड़ा समझ में आएगा तो अपनी समझ से कुछ बोलने का भी प्रयास अवश्य होगा।

कटुता का प्रदर्शन कम हो या न हो तो बेहतर है। मेरा मानना है कि बहस मे उतरने वाले लोगों का लक्ष्य एक ही है, देश में लोगों के जीवन को बेहतर से बेहतर बनाना। लेकिन मतभेद उस लक्ष्य तक पहुँचने वाले रास्तों को लेकर है। जब लक्ष्य की समानता हो तो रास्ते का मतभेद मायने नहीं रखता। गाँधी, सुभाष और भगत सिंह के मार्ग अलग अलग थे। आलोचना भी सभी ने एक दूसरे की की। लेकिन उन के मनों में एक दूसरे के प्रति भरपूर आदर था। वैसा चले तो बहस का परिणाम कुछ भी हो बेहतर ही होगा, चाहे वह असहमति पर ही क्यों न समाप्त हो।

मुझे आप की कुछ बातों पर आपत्ति है। एक तो आप ने रक्षन्दा जी के नाम से ब्लाग कोई और व्यक्ति लिखता है। मुझे इस तथ्य की सचाई पर संदेह है। कहने वाले को यह साबित करना चाहिए। इस से मुझ जैसे लोग भी एक ब्लाग पर संदेह करने की स्थिति में आ जाते हैं। दूसरा यह कि आप ने अभय जी पर आरोप लगाया है कि "इसमें कहीं आपका इस्राएलियों से कोई व्यक्तिगत इंटरेक्शन तो कोई भूमिका अदा नहीं कर रहा?" शिव कुमार जी ने उसे सीधे सीधे पैसे ले कर लिखने का आरोप लगाया है। यह भावावेश में किया गया हो तो उस के लिए खेद व्यक्त किया जाना चाहिए, और अगर यह सही है तो उसे साबित किया जाना चाहिए। और फिर अभय जी का बहिष्कार कर दिया जाना चाहिए।

वहाँ ज्ञानदत्त जी ने इस्लाम को तेल के धन पर टिका हुआ होने की चेतावनी दे दी है। हालांकि वे उस की स्ट्रेंथ के मामले में असमंजस में हैं। पर पंगेबाज जी और संजय बेंगाणी जी भी उन की हाँ में हाँ कर के कतार में खड़े हो गए हैं।
ऐसा लग रहा है कि महाभारत शुरु होने के पहले गीता संदेश की तरह ही कुछ होने वाला है।

मेरा विचार यह है कि हम अगर व्यवहार की शुचिता बनाएँ रखेंगे तो हिन्दी ब्लागिंग के एक हिस्से को वाकई एक विश्वविद्यालय के रूप में बदल सकते हैं जहाँ हर कोई सीखने आता है, सीखता है और सिखाता है। जहाँ कोई कुलपति नहीं लेकिन फिर भी वह एक श्रेष्ठ शिक्षा संस्था है।

विमला तिवारी 'विभोर' said...

घोस्टबस्टर जी,

हमास के बारे में मैंने लिखा - "१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगर व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।"

यासीन के बारे में मैंने लिखा.."उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे "खतरनाक" प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी।"

मैं उसे अतिवादी संगठन भी कह रहा हूँ.. फिर भी आप कह रहे हैं कि मैं उसकी ताईद कर रहा हूँ.. मेरा सवाल है कि -"फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?"

अगर किसी को लगता है कि मैं हमास को या उसके नेता को हीरो बना रहा हूँ तो मैं इस से अधिक कुछ नहीं कह सकता..

रही बात व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी की तो बात अभय तिवारी विरुद्ध घोस्टबस्टर के बजाय इज़राईल-फ़िलीस्तीन विवाद पर हो तो बेहतर है.. अधिक अच्छा होगा कि आप मुझे किनारे रखें और अपनी बात कहें.. लोग मुद्दे पर ग़ौर करेंगे.. अभय और घोस्टबस्टर पर नहीं..

वैसे आप को असहमत होने का पूरा हक़ है और उसकी अभिव्यक्ति का भी..

आप की बात सही है कि साक्ष्य और प्रमाण न दे सका.. अधिकतर सूचनाएं नेट से ही इकट्ठा की हैं.. विकीपीडिया एक बड़ा स्रोत रहा है..

आज दिल्ली की ओर जा रहा हूँ..और नेट हर जगह घर जैसे सुलभ नहीं होगा। उम्मीद है मेरी अनुपस्थिति आप को निरुत्साहित नहीं करेगी।

सादर

अभय तिवारी said...

ऊपर का विमला तिवारी'विभोर' के नाम से कमेन्ट मेरी माँ की आई डी से पब्लिश हो गया है उसे मेरा द्वारा प्रकाशित माना जाय!

Shiv said...

माननीय दिनेश जी की टिप्पणी पर मेरा विरोध दर्ज किया जाय.......और विरोध उनके द्बारा की गई टिप्पणी को लेकर है. लगता है जैसे उन्होंने पोस्ट को ध्यान से नहीं पढा.

पहली बात ये है कि घोस्ट बस्टर जी ने अभय जी से नहीं कहा कि "इसमें कहीं आपका इस्राएलियों से कोई व्यक्तिगत इंटरेक्शन तो कोई भूमिका अदा नहीं कर रहा?"

दिनेश जी, कृपया नोट करें कि ये पंक्ति घोस्ट बस्टर जी ने ई-स्वामी जी के लिए लिखा है न कि अभय जी के लिए.

अब आता हूँ मेरी टिप्पणी पर. आपने लिखा है;

"शिव कुमार जी ने उसे सीधे सीधे पैसे ले कर लिखने का आरोप लगाया है।"

आपने किस तरह से मेरी टिप्पणी का यह मतलब निकाला? मैंने अभय जी को इतिहासकार कहा है क्या? मैं उन्हें इतिहासकार मानता हूँ क्या? मैंने उन इतिहासकारों के बारे में लिखा है जो किसी एजेंडे के तहत विपरीत विचार वालों की ऐसी-तैसी करते रहते हैं. अभय जी कोई इतिहासकार नहीं हैं. मेरी तो समझ में नहीं आ रहा कि आपने मेरी टिप्पणी का ऐसा मतलब निकाला भी कैसे?

किस दृष्टि से मेरी टिप्पणी आपको भावावेश में की गई टिप्पणी लगती है? आपकी टिप्पणी देखकर लगता है जैसे आपने मेरे बारे में धारणा बना रखी है कि मैं घोर दक्षिणपंथी हूँ और मेरी टिप्पणी का मकसद ही अभय जी के बारे में उल-जुलूल लिखना है. क्षमा कीजियेगा लेकिन मैं ये कहने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूँ कि आपकी टिप्पणी एक ब्लॉगर की कम और एक वकील की ज्यादा लग रही है.

आपने जो बहस से ज्ञान-प्राप्ति की बात की है, वो मुझे समझ में नहीं आती. इसके पहले भी बहुत सारे ब्लाग पर ढेर सारे मुद्दों पर बहस में हिसा लिया है आपने. क्या मिला ऐसी बहस से? ज्ञान? मुझे तो लगता है कि बहस का आयोजन ही ध्यान खीचने के लिए किया जाता है. किसी ने एक पोस्ट लिखी और दूसरे ने उसे 'बहस' का मुद्दा बनाकर एक और पोस्ट ठेल दी. किसका भला करने का नाटक किया जाता है इन बहसों में? किसे ज्ञान की प्राप्ति होती है?

असल में शास्वत लिखने की चाहत ऐसा करवाती है. ये जो भविष्य सुधारने का ढकोसला किया जाता है इस तरह की पोस्ट लिखकर उसके कोई मायने नहीं हैं. पहले अपने युग को सुधारने का कार्यक्रम चलायें, भविष्य अपने आप सुधर जायेगा. किन मुद्दों पर बहस नहीं हुई? जाति पर. धर्म पर. नारी उत्पीडन पर. और नतीजा क्या रहा? पूरा का पूरा समाज कई खंडो में विभाजित हो गया है. जिन्हें काम करना है वे चुप-चाप काम करते हैं. बहस नहीं चलाते. जिन्हें काम नहीं करना है, वे मजा लूटते हैं ऐसी बहस चलाकर. टिप्पणियां करने का मौका मिलता है न.

अभय जी से मेरा यही कहना है कि मेरी लिखी गई टिप्पणी आपके विरुद्ध नहीं है. मेरी टिप्पणी बहस करने का नाटक करने वालों के लिए है. और ऐसी भी बात नहीं है कि बहस केवल ब्लाग पर आयोजित हो रही है. क्या इतिहासकार टीवी पर बहस नहीं करते?

ये तो दिनेश जी अपना कमेन्ट देकर ये साबित करने की कोशिश की है कि मैं आपके ऊपर पैसा लेकर इतिहास लिखने का आरोप लगा रहा हूँ. और उनकी ये टिप्पणी मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी.

अनुनाद सिंह said...

वस्तुनिष्ट बहस होनी ही चाहिये। अभय तिवारी को तर्क के मैदान में ललकारने के लिये मैं आपको साधुवाद देता हूँ। अभय तिवारी के उस पोस्ट पर की गयी टिप्पणियों में बहुत दम है। वे कुछ भी कह कर उससे कुछ भी निष्कर्ष निकाल सकने के अभ्यस्त हैं।

एक जमाना था सभी कम्युनिस्ट अपने को सबसे महान अर्थशास्त्री समझते थे। समय ने सिद्ध कर दिया कि उनका अर्थशास्त्र वस्तुत: अनर्थशास्त्र था जिसने दुनिया को सैकडों साल पीछे पहुँचा दिया। मुझे विश्वास है कि यही हाल कम्युनिस्ट इतिहासकारों का होगा।

प्रेमलता पांडे said...

besah anyon ko sochane kaa maukaa deti hai,
basharte svasth bahas ho. agle lekh ka intazaar hai.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

ये लोग फुनगी पकड़कर कुतर्क करना शुरू करते हैं. जड़ की तरफ जाने का इनके पास धैर्य नहीं. अभय तिवारी के शोधपूर्ण आलेख के जवाब में इनकी वैचारिक दरिद्रता देखते ही बनती है. संघ ने विश्वास जैसी चीज ही इनके दिमागों से उड़ा दी है. जातियों और इस पर आधारित नफ़रत को छोड़ कुछ न समझ पाने के लिए इनका ब्रेनवाश कर दिया गया है. ये जीते-जागते रोबोट हैं. किसी भी समझदारी भरी बात पर कैसे नफ़रत का ज़हर उगलना है कोई इनकी तत्परता से सीखे. और ये अपने आपको सच्चा हिन्दू कहते हैं! इन्हें हिन्दू शब्द का मतलब भी पता है क्या? माफ़ कीजियेगा, यहाँ मैं बेवजह उग्र हिन्दू हो जाने की वकालत नही कर रहा हूं.
उमा भारती जब भाजपा की संघ समर्थित सबसे तगड़ी मुख्यमंत्री थीं तब उन्हेंने गाय पालने के लिए गाँवों को चिह्नित किया था. आज उसी का फ़ायदा उठाकर एमपी के कई भाजपाई पैसेवाले हो गए. मार्क्स तो ख़ैर भाजपा से पैसा खाकर वेवकूफ़ ही था! कुतर्कियों को एक बार फिर साधुवाद!
बेचारे दिनेशराय ने जरा सी असावधानी क्या बरती; आपका ध्यान तुंरत सिरच्छेद की तरफ चला गया. भाजपाशासित सरकारों में क्या=क्या घपले हो रहे हैं उन पर आपकी बेध्यानी स्वागत योग्य ही समझी जानी चाहिए.
बकिया शिव कुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त जी को मैं अब भी भारतीय हिन्दू मानता हूँ. मेरा प्रबल विश्वास है कि उन जैसी सोच ही मौजूदा भारतवर्ष की मुख्यधारा हैं. लेकिन शिव जी को इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था.

eSwami said...

घोस्टबस्टरजी,

आपके उदार शब्दों के लिये धन्यवाद.

मुझे नहीं लगता की अभयजी नें चार चार लेख उनके किसी एक पक्ष की ओर झुकाव के चलते लिखे होंगे - वे इतिहास को जैसा समझे हैं सबसे साझा करना चाह रहे हैं. ये उत्साह ही उन्हें एक पठनीय चिट्ठाकार बनाता है. ठीक वैसे ही आपका लेखन आपको एक जागरूक चिट्ठाकार बनाता है.

एक पाठक होने के नाते मेरे लिये अभयजी का राजनैतिक झुकाव उनके संप्रेषण के आडे नहीं आया - ठीक वैसे ही आपने अपनी प्रतिक्रिया को व्यक्ति के बजाय विषय पर केंद्रित करने की ठान के एक अच्छी पहल की है.

आप पूछते हैं की अभयजी के लेख मुझे संतुलित लगे क्या इसके पीछे याहूदियों से मेरे इटरेक्शन का हाथ है? नहीं - इसके पीछे अभयजी की लेखनी का हाथ है. अगर मैं अपने अनुभवों को या अभयजी के बारे में अपने किसी प्रिकंसीव्ड नोशन (गुमान) को आडे लाऊंगा तो अभयजी के शब्दों में भी खुद ही को पढूंगा लेखक को नहीं, वो तो उनके साथ अन्याय होगा ना!

हम पढे लिखे लोग बहुत श्याणें होते हैं - विचार के बजाय अभिव्यक्ता की छवि देख कर प्रतिक्रिया तय करते हैं. यदी महान आदमी बेवकूफ़ी वाली बात करे तो भी वाह वाह और अगर बच्चा अच्छी बा्त भी करे तो भी "चुप बे"! अच्छा पाठक होने की कोशिश में काफ़ी कुछ अनसीखा कर के स्लेट साफ़ कर के शुरु करना पडता है. :)

आपके लेखों की प्रतीक्षा है!

संजय बेंगाणी said...

लिखो भाई लिखो, बिना दबाव व तनाव के लिखो.

मसिजीवी said...

अहिस्‍ता अहिस्‍ता पढ़ रहा था इसलिए टिप्‍पणी की कम समझने की चाह अधिक थी। आपको पहले भी पढ़ा है खासकर टिप्‍पणियों में, अभय का तो पढ़ा ही है। इस बहस में 'व्‍यक्ति' के आ जाने से थोड़ा विचलन आता है लेकिन आप पर संघी होने का आरोप सिर्फ इस आधार पर खाहरज किया जा सकता है कि आप बहस में विश्‍वास करते हैं उसे तथा उसकी उपयोगिता को खारिज नहीं करते।


त्रासदी तो इस बहस के वे पाठ हैं जो विमशौं को ही नकारते हैं। 'क्‍या उखाड़ लोगे बहस करके' इस प्रवृत्ति सावधान रहने की जरूरत है।

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