Saturday, September 20, 2008

... मेरो दर्द न जाने कोय. एक बेचारे पुरूष की दर्द भरी आह, मगर सुनेगा कौन?

लोग अक्सर महसूस करते हैं, और गाहे बगाहे थोड़ी हिम्मत जुटाकर शिकायत भी कर ही लेते हैं कि ब्लॉग जगत में किसी भी मुद्दे पर सहानुभूति का रुख महिलाओं की और कुछ ज्यादा ही झुका हुआ नजर आता है. बेचारे पुरुषों को अपनी बात ठीक से रखने का मौका ही नहीं मिलता. बस हुल्लड़बाजी में उनकी आवाज दब कर रह जाती है. अब इसमें कितनी सच्चाई है वो तो हम कहने से बचना ही उचित समझते हैं, पर ये जरूर है कि ब्लॉग भी समाज का ही दर्पण है. जो स्थिति विभिन्न मुद्दों पर हमारे आसपास की वास्तविक दुनिया की नजर आती है, कमोबेश वही सब कुछ यहाँ ब्लॉग के आभासी संसार में भी देखने को मिलता है.

बेटियों के ब्लॉग की तर्ज पर बेटों का ब्लॉग भी बनता है, नयापन समझ कर शुरू-शुरू में थोड़ा स्वागत भी होता है, लेकिन बहुत जल्दी ही टाँय-टाँय फिस्स हो जाता है. 'कहाँ से आया किधर गया वो' जैसी हालत हो जाती है. नारी सम्बंधित किसी मुद्दे पर किसी भी किस्म की चर्चा छेड़ने वाले भले ही कितने ही सज्जन व्यक्ति क्यों न हों, और कितनी ही ईमानदारी से अपनी बात क्यों न रखें, बहुत जल्दी लोगों के पत्थरों का निशाना बन जाते हैं. हाय, क्या किया जाए, ज़माने का दस्तूर ही ऐसा है.

अपना कुछ ऐसा ही दर्द बयाँ कर रहे हैं श्री रघुनाथ प्रसाद 'गुस्ताख'. ये एक दहेज़ पीड़ित पति हैं. इस अभिव्यक्ति में और भी कई पीडाएं मुखर हुई हैं इनकी, पर क्या कोई इनकी शिकायत पर कान धरने वाला होगा इस ब्लॉग जगत में? मुझे तो बिल्कुल नहीं लगता. बिल्कुल नहीं.

कैसे तुमको लिखूं नमस्ते!

हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.
उल्लू सीधा किया आपने, मुझको अच्छा उल्लू फांसा,
सोने-चांदी के गहने कह, दे डाला सब पीतल-कांसा.
सिक्के जितने दिए दान में, एक-एक सब निकले खोटे,
रजत-थाल फौलादी निकले, एल्म्युनियम के निकले लोटे.
सिलेसिलाए कपड़े लगते, मांगे हुए, महा बेढंगे,
कुर्ते बिल्कुल चोली जैसे, पतलूनें ढीलीं ज्यों लंहगे.

पहने जिनको देख अनारी, नारी जान फब्तियां कसते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.
चूसे हुए आम के जैसी, साठ साल की गाय पुरानी,
अजी दूध की बात छोड़िये, थन से नहीं निकलता पानी.
खटिया साढ़े तीन टांग की, सौ सालों के शाल-दुशाले,
जिनमें पले हुए हैं लाखों खटमल, आफत के परकाले.
खिड़कीदार मसहरी जिसको 'नाईट क्लब' समझे हैं मच्छर,
तकिये को तकिया बोलूँ मैं या चंदन घिसने का पत्थर.

अध्-गंजी हो गयी खोपडी, जिसके ऊपर घिसते-घिसते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.
सडी सायकिल झनझन करती, घण्टी नहीं बजाये बजती,
दो पुरुषों का भार कभी जो, महासती सा सहन न करती.
घड़ी पुरानी आदम युग की, दिन भर जो चाभी ही खाती,
जिसे देखकर बिना बताये, लोग समझ जाते खैराती.
'सेकेण्ड-हैण्ड' टायर के जूते, वह भी शत-प्रतिशत जापानी,
तलवे जिनके भीतर रहते, बाहर रहती उँगली कानी.

आप 'दशम ग्रह' के फेरे से छूट गए बिल्कुल ही सस्ते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.
वह भी कोई ससुरालय है, जहाँ नहीं सलहज या साली?
यह तो बिल्कुल बात वही है, सुरा-पात्र हो लेकिन खाली.
आप ब्याह से पहले श्रीमन बनते राजस्थानी भामा,
किंतु रचा कर ब्याह सुता का, द्वापर के बन गए सुदामा.
आप 'स-सुर' हैं, तानसेन हैं, मेरे तो लय-सुर हैं मध्यम,
मुझे जमाई कहने वाले, आप भला क्या यम् से हैं कम?

जब भी आप यहाँ आते हैं, दो-दो हफ्ते नहीं खिसकते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.
'बिन घरनी घर भूत का डेरा' उल्टी हुई आपकी कथनी,
घर मेरा बनवास बन गया, आते ही भुतनी सी पत्नी.
सूर्पणखा जैसी नखवाली, चंडी-मुख, सुरसा सी काया,
जिसे आप अपनी कहते थे, वह 'मछेन्द्र' की निकली माया.
ढोल बजाकर, शोर मचाकर, आप बन गए कन्यादानी,
मैं पत्नी का पकड़ पुछल्ला, बीच भंवर में पीता पानी.

ले लें कन्यादान आप यह, जिसे दिया था हँसते-हँसते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.

मैं मर-मर कर खींचा करता हूँ यह घर की भैंसागाड़ी,
ऊपर से वह हांका करती, कहकर जांगरचोर अनाड़ी.
अब अपना ऋण आप संभालें, मुझ गरीब का छोडें पल्ला,
ब्याज रूप में सौंप रहा हूँ, तीन लल्लियाँ दो-दो लल्ला.
ले लें इनको वरना जिस दिन अन्तर का वैराग्य जगेगा,
उस दिन यह दामाद आपका, पहन लंगोटी दूर भगेगा.

वर्षों से मैं समझाता हूँ, मगर आप क्यों नहीं समझते,
हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते.

- रघुनाथ प्रसाद 'गुस्ताख'

14 comments:

कुश said...

विषय अच्छा है गुस्ताख .. परंतु ब्लॉग ग़लत चुना आपने.. इसके लिए ब्लॉग है - 'पुरुष' वहा पर लिखे आप.. वहा पर पीड़ित पुरुषो के लिए लोग बहस करते है.. हालाँकि उस बहस से होता कुछ नही.. पर करते है..

किंतु आपने तो कविता लिखी है.. इसे आप चाहे तो पुरुष के कविता ब्लॉग नमक ब्लॉग पर भी प्रकाशित कर सकते है..

L.Goswami said...

हो सकता है सही हो जो आपने कहा ...पर कब तक कोई किसी कारन विशेस के लिए टिप्पणी या प्रोत्साहन दे सकता है .अंततः मोह भंग होता है ,और लोग समझ जातें हैं क्या पढ़ना चाहिए.

परमजीत सिहँ बाली said...

वाह! बहुत बढिया रचना है।पता नही पुरूषों की पीड़ा को कोइ कभी समझेगा भी या नही:

Shiv said...

कविता सुंदर है.
बहुत पहले सुनी थी. गुस्ताख साहब से. मैं जिस स्कूल में पढता था, उसमें पढाते थे गुस्ताख साहब.

Anonymous said...

दहेज़ पीड़ित पति

dahej ki kaama chodh dae pidaa khud ba lhud aap tak nahin aayegee
dahej leaene waal pidaa ko khud bulaata haen
aur kanyaa dan laene waal to bhikhari hae hee kyu ki daan jo bhi letaa haen bhikaari hot haen aur kyuki ghost buster haen aap so agrezi praveen to haen hee
"beggers are not choosers" dhyaan sab rakhey

vineeta said...

bahut bahiya....maza aa gya kavita ko mahila virodhi najariye se na dekh kar ek vishudh kavita ke taur par delhen to accha lagega...

Gyan Dutt Pandey said...

हे पत्नी के पूज्य पिताजी, कैसे तुमको लिखूं नमस्ते

अरे नमस्ते? साष्टांग दण्डवत होना चाहिये मित्र! :-)

Arvind Mishra said...

क्या कहने हैं ! सशक्त रचना !

Udan Tashtari said...

श्री रघुनाथ प्रसाद 'गुस्ताख' की कविता के तो क्या कहने-भई वाह!!! बहुत खूब..ज्ञानजी सही कह रहे हैं: अरे नमस्ते? साष्टांग दण्डवत होना चाहिये मित्र! :-)

बढ़िया आलेख, अतः आपको भी नमस्ते!

सतीश पंचम said...

इतनी अच्छी कविता पढवाने के लिये धन्यवाद।

अनुनाद सिंह said...

वाह, इतनी अच्छी कविटा पढ़वाने के लिये धन्यवाद! कविता की हरेक पंक्ति सरस है।

Shastri JC Philip said...

दो बातें:

1. आपने सही लिखा है कि नारी विषय पर जो भी लिखता है उसके विरुद्ध जम कर पत्थरबाजी (एवं अखबारबाजी की तर्ज पर चिट्ठाबाजी) होती है. लेकिन यदि ध्यान से देखेंगे तो पायेंगे कि हजारों चिट्ठाकारों के बीच कुल मिला कर चारपांच ही हैं जो यह करते हैं एवं वे हमेशा अपनी जेंबे पत्थरों से भर कर रखते हैं. सामाजिक निर्माण के बदले सामाजिक अराजकत्व इनकी फिलासफी है.

2. कविता! वाह, व्यंग को शुद्ध व्यंग के रूप में लिया जाये तो कई घंटों तक मुस्कराने, हंसने, ठहाके लगाने के लिये सामग्री है यहां. इतना ही नहीं, क्या सुलभ भाषा में लिखी गई है यह कविता.

इनकी और भी कुछ रचनायें पढवाईयेगा!!


-- शास्त्री

-- ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसने अपने विकास के लिये अन्य लोगों की मदद न पाई हो, अत: कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर अन्य चिट्ठाकारों को जरूर प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)

शारदा अरोरा said...

हंस हंस कर हम दोहरे हो गए
आपकी चिठिया ,आपकी पाती
आपका दुखडा जग को हंसाता
शब्द तो सारे मोहरे हो गए
sharda arora

Alpana Verma said...

अरे कविता कैसे लिखूं नमस्ते' चित्र में उल्लू ही दिखाया गया है!:)
..
बहुत मजेदार!:D

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