Friday, September 4, 2009

पापा की बिटिया और ट्रेन-पकड़-शौर्य गाथा (भोपाल यात्रा - अंतिम भाग)

घर से रेल्वे स्टेशन का रास्ता होगा यही कोई बीस मिनिट का. स्वतन्त्रता दिवस पर काफ़ी सारा बाज़ार बन्द था, सड़कों पर ज्यादा आवाजाही नहीं थी. पन्द्रह मिनिट में ये सफ़र पूरा कर लेने की उम्मीद लेकर २:१० पर घर से निकला गया. ट्रेन २:४० पर थी. लगा था कि इतना समय पर्याप्त होगा. पर ऐसा कहां होना था.


खिड़की के काँच में पापा की बिटिया की परावर्तित छवि
१५ अगस्त, शनिवार

दोपहर ०२:१५ बजे

पिछले ही दिन भोपाल की सरज़मीं पर पहला कदम रखते ही बारिश की बूंदों ने बड़े प्यार से स्वागत किया था और आज विदाई की बेला में एक बार फ़िर से हल्की बारिश शुरु हो चुकी थी. विन्ड्स्क्रीन पर चमकती बूंदों को दोनों ओर धकेलते हुए वाइपर्स ने घूमना शुरु किया और वापसी के सफ़र की शुरुआत हो गयी. बड़ा सुहाना दिन था. ठंडी हवा के मदमस्त झोंके कार की खिड़की से अंदर आ रहे थे जो प्राकृतिक वातानुकूलन का काम कर रहे थे, और बहुत बढ़िया से कर रहे थे. पता नहीं फ़िर कब दुबारा आना हो, यही सोच कर हमारी नज़रें लगातार बाहर फ़िर रही थीं. सड़क पर कुछ गाते-बजाते जुलूस टाइप के भी नजर आ रहे थे.

पर प्रदेश की राज़धानी में सुरक्षा व्यवस्था भी तो चौकस होनी चाहिये ना. हमीदिया रोड का रुख करते ही पता चला कि पुलिस ने इधर लम्बे-चौड़े बैरीकेड्स लगा कर आवागमन पर विराम लगा रखा है. यहां से केवल पांच मिनिट का रास्ता बाकी था पर मजबूरन कार को घुमाना पड़ा. आगे से घूमकर किसी और रास्ते से निकल लेंगे ये सोचकर कार को एक गली की ओर मोड़ा गया. पता नहीं क्या संयोग है कि ऐसे हड़बड़ी के क्षणों में ही लोगों का राष्ट्रीय चरित्र यकायक से उभरकर सामने आ जाता है. या शायद ऐसे मौके पर ही इन घटनाओं का हम लोग सही से नोटिस लेते हैं. जैसी की आप किसी भी आम भारतीय नगर में आशा कर सकते हैं, यहां भी वही नज़ारा दिखा. एक मिनी ट्रक के ड्राइवर को इस गली में प्रवेश करते ही पता नहीं च्यास लग आई थी या कोई प्राकृतिक बुलावा आ गया था, जिसके नतीजे में वह स्वयं की प्रकृति और स्वभाव को दर्शाते हुए अपने ट्रक को बीच राह में खड़ा कर, और इस प्रकार यातायात को दक्षतापूर्वक अवरोधित करते हुए किसी अनजान दिशा में चम्पत हो लिया था. मुश्किल से कार के निकल पाने भर की जगह छोड़ी थी जो भारी आवागमन के दबाव से और भी संकरी लग रही थी. भाई-साहब की पेशानी पर पहली बार कुछ बल पड़े दिखे पर अंततः थोड़ी जद्दोजहद के बाद इस जगह से निकलने में कामियाबी हासिल हो ही गयी. पांच-छैः मिनिट यहां खर्च हो गये. दो बजकर तीस मिनिट यहीं हो लिये थे.

गली ने हमीदिया रोड पर ही कहीं बीच में ले जाकर छोड़ा. स्टेशन के मुख्य प्रवेशद्वार (एक नम्बर प्लेटफ़ॉर्म) के बजाय पीछे के रास्ते से जल्द पहुंचा जा सकता था. जल्दी-जल्दी कार को एक ओर लगाया गया और हम आनन-फ़ानन में रेल्वे ब्रिज की दो-दो सीढ़ियां फ़ांदते हुए चढ़ने लगे. नजर नीचे की ओर थी जिससे कि कुलांचों की लम्बाई और चाल की तीव्रता में तारतम्य बनाये रखा जा सके. आधी सीढ़ियां चढ़ गये होंगे जब एक बार फ़िर राजधानी की कर्मठ पुलिस के अवरोध का सामना हुआ. जड़त्व के नियम का पालन करता हुआ हमारा शरीर उस पीले रंग से पुते बैरीकेड से लगभग टकराते-टकराते बचा. पता चला कि इस रस्ते को आज सुरक्षा के लिहाज से बंद कर दिया गया है. यहां से आगे जाने का कोई चांस नहीं. दो पैंतीस हो चुके थे और अब हिम्मत जवाब देने लगी थी (हालांकि हमने उससे ऐसी कोई मांग नहीं की थी). शताब्दी अक्सर सही समय पर ही रहती है. पांच मिनिट में रवाना हो लेगी और हम यहीं रह जायेंगे.

कहते हैं कि ईश्वर अगर एक रास्ता बंद करता है तो दूसरा जरूर खोलता है. लेकिन अगर कभी इस प्रक्रिया में उसे कुछ ज्यादा समय लग जाये तो इंसान हाथ पर हाथ धरकर उसका इंतजार करते तो नहीं बैठा रहेगा. सीमेंट से बनी और पहली पुताई की प्रतीक्षा कर रही चार-पांच फ़ीट ऊंची स्टेशन की बाउंड्रीवाल नय़ी सी लग रही थी. लेकिन उसमें मौजूद बड़ा सा छेद उतना ही पुराना दिखता था जितना कि वो हो सकता था. चलती ट्रेनों में सामान बेचने वालों से लेकर भिखारियों और उचक्कों तक के लिये इस प्रकार के शॉर्ट कट्स बड़े काम के होते हैं. साथ ही उन यात्रियों के लिये भी ये एक वरदान की तरह होते हैं जो यात्रा में टिकिट का वजन साथ में ढोना पसंद नहीं करते. इस नवीन मार्ग पर निगाह जाते ही मन में आशा का नवसंचार सा हुआ. कुछ ऐसी ही फ़ुरफ़ुरी आई जैसी कि हैरी पॉटर को मिसेज़ वीज़्ली से प्लेट्फ़ॉर्म नम्बर पौने दस का रास्ता जानकर आई होगी.

रेल्वे ब्रिज के ऊपर टंगी डिजि़टल घड़ी दो अड़तीस का समय दिखा रही थी. प्लेट्फ़ॉर्म पर कदम रखने में एक मिनिट और लगा और जब कोच के पायदान पर पैर टिकाया तो ठीक दो चालीस हुए थे. सीट पर जाकर बैठने से पहले ही ट्रेन चल पड़ी. आज भला कैसे लेट हो सकती थी? साथ वाली सीट खाली थी. फ़ैलकर आराम में बैठ गये और आँखें बंद करके दिल की धड़कनों के सामान्य गति पा लेने की प्रतीक्षा करने लगे.

सांसों को व्यवस्थित स्वरूप पाने में कुछ देर लगी. इसके बाद हमने एक उचटती सी निगाह चारों ओर डालकर कोच का सरसरी तौर पर मुआयना किया. बड़ा ही गम्भीर सा माहौल - एक कुलीन सी शांति पसरी हुई. हमने बैग खोलकर काशीनाथ सिंह की "काशी का अस्सी" निकाल ली. आधी जाते हुए रास्ते में पढ़ ली थी, बाकी आधी लौटते हुए खत्म कर लेंगे. कुछ पेज पढ़े. तभी अचानक अगली सीट से एक मीठी खनकदार हंसी की आवाज आई. ध्यान उधर गया. वहां पर एक नवविवाहित सा लगने वाला जोड़ा बैठा था. मैडम जरीदार लाल साड़ी में सीधे तन कर सामने की ओर और उनके हब्बी जी लगभग नब्बे डिग्री पर यानी उनकी ओर मुड़कर बैठे थे. नया-नया बंधन जुड़ा लगता था. रुतबेदार व्यक्तित्व की स्वामिनी मैडम जी मोबाइल पर बात कर रही थीं. हब्बी जी उनकी बात खत्म होने का इंतजार कर रहे थे.


जरा ठहरो काशीनाथ सिंह
बड़ी देर के बाद मोबाइल बंद हुआ. अब दोनों आपस में मुखातिब हुए. देवी जी अपने देवा जी की ज्ञानवृद्धि में लग गयीं. कुछ अपने पापा जी के बारे में बता रही थीं और श्रीमान जी आश्चर्यजनक धैर्य का परिचय देते हुए इन महाबोरिंग बातों को ऐसे सुन रहे थे जैसे इससे ज्यादा रुचिकर तो दुनिया में कुछ और हो ही नहीं. लग यही रहा था कि सचमुच सुन रहे थे और सुनकर ज्यादा और ज्यादा प्रभावित होते जा रहे थे. पापा जी के अनेक गुणों का विस्तार से बखान चला. हमने काशीनाथ सिंह जी को विराम दिया और ज्यादा रोचक किस्सों में ध्यान लगाया.

"जब पापा का ट्रांसफ़र फ़लाने शहर में हुआ तो वहां पहुंचकर उन्होंने देखा यहां तो सबकुछ बड़ा अस्तव्यस्त है. उन्होंने लगकर सबको ऐसा ठीक किया कि...कि... सबको सुधारकर रख दिया. आज तक वहां के लोग याद करते हैं....."

"पापा ने जब मकान बनाया तो बाहर से कारीगर बुलवाये, और डिज़ाइन खुद बनाया, और..."

"पापा की तो हमेशा से आदत है, स्कूटर में कभी हैंडल लॉक लगाते ही नहीं. बहुत पुरानी बात है. एक बार ऑफ़िस से जल्दी-जल्दी घर आये. स्कूटर बाहर ही खड़ा किया और अंदर चले गये. लौटकर बाहर आये तो पाया स्कूटर गायब."

"क्या घर के सामने से? दिन में ही?" - जिज्ञासु पति.

"हां बिल्कुल. पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाई. पुलिस वाले तो कुछ कर ही नहीं रहे थे. फ़िर बड़े अफ़सरों से बात की. दो ही दिन में स्कूटर मिल गया."

"क्या? मिल भी गया?"

"सचमुच मिल गया. ये पुलिसवाले भी ना, सब मिले रहते हैं. इन्हें सब पता रहता है इन चोरों के बारे में. जब चाहें पकड़ लें, जब चाहें जाने दें."

अगले घंटे भर तक काशीनाथ सिंह को कुछ कहने का मौका नहीं मिला. आखिरकार अधूरे ही घर तक आये और अगले चार-पांच दिन में पूरे किये गये.


बेतवा नदी
बेतवा के पुल से गुजरते हुए दिखा कि वर्षा से पानी की कुछ मात्रा नदी में आ गयी है. वर्षभर अन्यथा सूखी ही दिखती हैं अब देश की अधिकांश नदियाँ. ठीक समय पर ट्रेन गंतव्य तक आ पहूंची. स्टेशन आने से पन्द्रह मिनिट पहले से ही लोग उठकर दोनों गेटों के आगे दो कतारों में विभाजित होकर खड़े हो गये. इतनी भी क्या जल्दी रहती है?

आखिरकार घर भी आ गया. साढ़े चौबीस घंटों की भोपाल यात्रा अपने मुकाम पर पहुंची.घर पहुंचते ही दोनों बिटियों ने हमारे बहाने से हमारे बैग का स्वागत किया और उसे खंगालने में जुट गयीं. पापा आ गये का शोर जल्दी ही मेरे लिये क्या लाये, मेरे लिये क्या लाये की आवाजों में दब गया. बीस-पचीस वर्ष बाद का समय फ़्लैश फ़ॉरवर्ड बनकर अचानक हमारी आँखों के सामने घूमने लगा. कोई बांगड़ू पूरी तन्मयता से मन लगाकर सुन रहा है, "पता है पापा जब भी कभी बाहर के टूर से लौटते थे, तो एक बैग तो हम लोगों के लिये तरह-तरह की चीज़ों से भरकर ही लाते थे."

इतना भी पपियाना बिटिया? सच-सच कह देना कि जब देखो बस एक वही बात कहते थे. "बस जरा ये पोस्ट पूरी कर लूं, फ़िर सुनाता हूं ना एक नयी कहानी. ब्लॉगर हो गये थे ना."

12 comments:

naresh singh said...

बहुत अच्छा लगा आपका यह यात्रा वर्णन । और उससे भी ज्यादा खुशी आपके हिन्दी ब्लोग पर दुबारा लेखन चालू करने की हुई ।

naresh singh said...

बहुत अच्छा लगा आपका यह यात्रा वर्णन । और उससे भी ज्यादा खुशी आपके हिन्दी ब्लोग पर दुबारा लेखन चालू करने की हुई ।

Yunus Khan said...

हम तो सोच रहे थे कि नीचे एक पंक्ति होगी । इत्‍ते भाग खत्‍म इत्‍ते बाकी । पर जे यात्रा विवरण तो खत्‍म हो गया । अब आप कहां जाने वाले हैं ।

Udan Tashtari said...

ये भी बेहतरीन यात्रा वृतांत रहा..बहुत सही!

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर यात्रा वृत्तांत!

L.Goswami said...

सुन्दर लिखा आपने ..पढ़ रहे हैं

Anonymous said...

रोचक यात्रा वृत्तांत, पढ कर मजा आ गया।
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

Gyan Dutt Pandey said...

ये जीन्स की पैण्ट बढ़िया है मित्र। एक ठो हमें भी बनवानी है। पहने पर कुछ साल उम्र कम जो लगती है।
बाकी लिखा यूं है, जैसे हम ही लिख रहे हों!

Gyan Dutt Pandey said...

और बिटियों को प्यार। कभी मिले तो चॉकलेट लायेंगे!

Abhishek Ojha said...

जीवंत विवरण रहा ये.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

हद करते हो यार! बार-बार भोपाल की याद दिलाकर सेंटी कर देते हो!

Arvind Mishra said...

नव विवाहित जोड़ी की बतकही अच्छी समेटी आपने -काशीनाथ तक भी पिछड़ गए !

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