Thursday, June 19, 2008

वर्षा की रिमझिम फुहारों के बीच एक प्रेमी का विरह विलाप


विगत तीन चार वर्षों के अनुभव के आधार पर आशंका तो यही बनी थी कि इस बार भी इन्द्र देव ज्यादा मेहरबान होने वाले नहीं, मगर पिछले चार दिन से लगातार चल रही अप्रत्याशित बारिश ने मोर, मेंढक और (जाहिर है) मनुष्यों के लिए भी जश्न मनाने का एक बड़ा अवसर सुलभ कर दिया है.

इतनी जल्दी और इतनी ज्यादा बरसात का किसी को अंदाजा नहीं था. शहर भर की नालियाँ अपनी पूरी दक्षता से बहने का भरसक प्रयत्न करने के बाद ओवरलोडिंग को अस्वीकार करते हुए जाम की घोषणा कर चुकी हैं. उधर कल दोपहर तेज बारिश में तिरपाल (वाटर प्रूफ़ कपड़ा) की दुकानों पर उमढी भीड़ ने अच्छे खासे रास्ते पर जाम की स्थिती बना दी. एक लाइन से लगभग बीस-पच्चीस दुकानें हैं और किसी पर पाँव रखने की जगह नहीं.

वैसे बारिश के मौसम में मन बड़ा रोमांटिक हो जाता है. एक खुमारी सी छा जाती है दिलो दिमाग पर. मिसाल के तौर पर याद कीजिये श्री चार सौ बीस राज कपूर और नर्गिस का प्यार हुआ इकरार हुआ, तब जब बारिश हुई. भूल सकता है कोई एक ही छतरी के नीचे खड़े ये दोनों और बरसता हुआ पानी?


और अगर ऐसे सुहाने मौसम में किसी को अपने प्रिय से अलग रहना पड़ जाए तो फ़िर उसकी स्थिती की कल्पना करना तो सहज ही होगा. खास कर तब जब मामला नया नया ही हो. कुछ ऐसा ही दुखडा रो रहे हैं आनंद स्वरूप मिश्र जी. आप भी देखिये.

मैं तो टापूं कलकत्ते में, तुम बैठीं गंगा पार प्रिये

मैं तो टापूं कलकत्ते में, तुम बैठीं गंगा पार प्रिये

देखो पावस घिर आया है,
टप-टप कर बूँदें गिरती हैं.
मानो रिमझिम के सरगम में,
अपने प्रियतम से मिलती हैं.
बिजली कौंधी तड-तड करके,
विरहों को और डराती है.
फिर दमक चमक करके देखो,
बदली में झट छुप जाती है.

सब हंस-हंस करके गाते हैं, मैं रोता जारा जार प्रिये.


बागों में खेत तलैया में-
जब मेंढक टर्र लगाते हैं.
अपनी मेंढुकिया से मिलकर,
मेरा उपहास उड़ाते हैं.
झींगुर गा-गा कर कहते हैं,
आओ कुछ तो मन की खोलो.
ये मोर नाचते जाते हैं,
कहते बोलो कुछ तो बोलो.

उत्तर दूँ क्या मैं उत्तर दूँ, जब मुझ पर तेरी मार प्रिये.

पश्चिम को दृष्टि उठाता हूँ.
घनघोर घटा घिर आयी है.
कुछ पक्षी भागे जाते हैं.
शीतल आयी पुरवाई है.
लो एक कामिनी भींग चली.
हंस-हंस कर गात छुपाती है.
झर झर कर बूँदें गिरती हैं.
ढीली चुनरी हट जाती है.

उसके चिकने चेहरे में भी तेरा ही रूप-उभार प्रिये.





मैं सोच रहा बैठा बैठा,
ऐसे में क्या करती होगी.
सखियों के संग खेतों में जा,
गन्ने का रस लेती होगी.
फ़िर उधर बाग़ के कोने में,
छैला भी इक आया होगा.
औ' तुम्हें झूलती देख वहां,
आहें भर मुस्काया होगा.

तुम वहां मौज हो मार रहीं, मुझको जीवन है भार प्रिये.

वे सखियाँ मेरी दुश्मन हैं,
जो साथ तुम्हारे आती हैं.
दिन भर चिलबिल्ली करती हैं,
उल्टा-सीधा समझाती हैं.
पल में आलिंगन करती हैं,
पल में तुझको दुलराती हैं.
फ़िर नरम कपोलों के ऊपर,
चुम्बन से प्यार जताती हैं.

जो सबको ही मिल जाता है, वह कैसा तेरा प्यार प्रिये.





मौसम ने तीर चला करके,
मुझको घायल कर डाला है.
औ' मेरे बुद्धू मित्रों ने,
मुझको पागल ठहराया है.
मैं जल्दी हूँ आने वाला,
अपनी माँ से भी कह देना.
फुरसत की घड़ियों में ही फिर,
सारा होगा लेना-देना.

सावन मन भावन होगा जब, हाथों में होगा हार प्रिये.

- आनंद स्वरूप मिश्र

7 comments:

Udan Tashtari said...

वाह जी, बरसात के चक्कर में बेहतरीन मिश्र जी की कविता सुना गये. बहुत आभार.

बीच बीच में प्रदीप चौबे याद आते रहे-मुश्किल है अपना प्रेम प्रिये...

पता नहीं क्यूँ!!

बढ़िया तस्वीरें, बढ़िया प्रस्तुति. बनाये रखिये माहौल.

Gyan Dutt Pandey said...

हम बताते हैं बारिश का हम पर प्रभाव - चार दिन से सिगनल फेल्योर, स्टालिंग, ट्रेन पर्टिंग, टर्मिनल पर गाड़ी का खाली/लदान में सुस्ती - इन सब के मारे रेल यातायात चौपट है। मन में अजीब सी खीझ और तनाव व्याप्त है!
आप इन की कल्पना कर सकते हैं! :)

Shiv said...

बहुत शानदार कविता है. फोटो भी. अनूप जी की तर्ज पर चंद लाईना...

इस वर्ष भी वर्षा खूब हुई
संग मेढक के जागे कविवर
उठकर बिस्तर पर बैठ गए
बह निकली कविता इध-उधर

वैसे तो पूरी कविता टिपियाने की सोच रहा था लेकिन........

pallavi trivedi said...

वाह जी....सुबह सुबह बारिश को देखते हुए कविता पढने का आनंद आ गया...तस्वीरें भी भीगी भीगी हैं...बस पकौडों की कमी है ...

PD said...

फोटूवा तो मस्त है जी और कविता उससे भी मस्त.. :)

sanjay patel said...

शब्द के साथ चित्र की जुगलबंदी ऐसी
बारिश में राग मल्हार की धुन गूँजे वैसी.

Abhishek Ojha said...

कविता तो मस्त है... यहाँ बारिश है की रुकने का नाम ही नहीं ले रही है और आप और छेड़ गए :-)

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