दोपहर ०२:२० बजे
'लगभग' सही समय पर चली ट्रेन 'एकदम' सही समय पर भोपाल स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर दाखिल हुई. ड्राइवर ने इस यात्रा में अंतिम बार ब्रेक का उपयोग किया और रेलगाड़ी ने प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर अपना पड़ाव डाल दिया. इस बार घर से रवाना होते समय मन में शहर की जो कल्पना करके चले थे, प्लेटफ़ॉर्म पर पहला कदम टिकाते ही एक झटके के साथ सब हवा हो गयी. सोचा तो था कि शहर में फ़ेस मास्क वाले कई चेहरे नजर आयेंगे. पर आँखें फ़ाड़-फ़ाड़ कर देखने पर भी एक भी मास्कमैन नजर नहीं आया. स्टेशन जैसे क्राउडेड प्लेस पर भी सब कुछ एकदम सामान्य दिखा, कहीं कोई पैनिक नहीं. न्यूज़ चैनलों के वे रिपोर्टर्स याद आये जो मास्क से मुंह ढंके चीख-चीख कर अपने दर्शकों को डरा रहे थे.
भाई साहब मय वाहन मौजूद थे. स्टेशन बिल्डिंग से बाहर निकलते ही बारिश की हल्की फ़ुहार ने स्वागत किया. पीछे एक बरसात को तरसते शहर को छोड़कर यहां पहुंचे हमारे जैसे प्राणी को तो ये अमृत के समान लगा. मूड रोमांटिक हो आया और महीनों से सोया हुआ अंतर का 'ब्लॉगर' भी आँखें मलकर कुनमुनाता हुआ उठ बैठा. बारिश में भीगते हुए ही आस-पास के चार-पाँच फ़ोटो खींच लिये गये. मगर ये ध्यान आते ही कि चौबीस घंटे के बसेरे के हिसाब से सीमित संख्या में ही वस्त्रों का प्रबंध किया गया है, हमने जल्दी से खुद को कार के हवाले किया और कार पार्किंगमैन के इशारों को समझते हुए हौले-हौले पार्किंग-लॉट से बाहर आकर घर की ओर दौड़ पड़ी.
भोपाल में इस वर्ष ठीक-ठाक ही बारिश हुई है. दो महीने पहले की तुलना में इस बार बड़े ताल का जल-स्तर काफ़ी बढ़ा हुआ नोट किया. शहर में हरियाली भी काफ़ी दिखी. वैसे तो बारिश कहीं की भी हो उसका अपना आनंद होता है, पर भोपाली बारिश से अपनी कुछ पुरानी यादें भी जुड़ी हैं. मुझे हमेशा याद आते हैं १५-१६ वर्ष पहले के वो दिन जब यहाँ के ऊंचे-नीचे रास्तों पर तेज बारिश में आधा रेनकोट पहनकर बाइक पर घूमा करते थे. सौंधी मिट्टी की महक के बीच ईदगाह हिल्स की चढाइयों पर बेफ़िक्री से विचरते कितनी ही यादगार शामें गुजरी हैं. इस बार केवल औरों को बारिश का मजा लेते देखते रहे और तस्वीरें लेते रहे.
मौसम लगातार बेहद खुश़गवार बना हुआ था. घर पहुंचते ही कार्यक्रम बनाया कि क्यों ना इस आदर्श घुमाई योग्य वातावरण को उचित सम्मान देते हुए मौसम के निमंत्रण को स्वीकार किया जाए और शहर का एक चक्कर लगा लिया जाये. आनन-फ़ानन में तैयारी हुई और सभी लोग कार में लद लिये. जन्माष्टमी का दिन, स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या. काफ़ी उल्लासमय माहौल था नगर का.
सरकारी इमारतें सज-धज कर तैयार थीं तो मन्दिरों में भी खासी संख्या में श्रद्धालु दिखे. एक विशाल सरकारी भवन के सामने से गुजरते हुए चमचमाहट देखकर हमने कैमरा चालू करने का उपक्रम किया. भाई साहब से चेतावनी मिली कि सुरक्षा कारणों से यहाँ का फ़ोटो लेने पर पाबंदी है. रोका जा सकता है. एक जिम्मेदार नागरिक के कर्त्तव्य को समझते हुए हम रुकने को हुए तो अंदर बैठे 'ब्लॉगर' ने फ़टकार लगाई और धिक्कार मचाई. एक एक्स्क्लूसिव शॉट के लिये उकसाया गया. यार एक फ़ोटो ले लोगे तो कोई टैररिस्ट तो नहीं हो जाओगे. संघर्ष कुछ सेकेन्ड्स ही चला, ब्लॉगर विजयी रहा.
एयरपोर्ट रोड से होते हुए राजीव गांधी प्रौद्यौगिकी विश्वविद्यालय के सामने से भी गुजरना हुआ. यहीं पर भेड़-बकरियों का एक रेवड़ अचानक सड़क पर सामने आ गया और पूरा रास्ता रोक कर चलने लगा. पानी भरे गड्ढों से सफ़लतापूर्वक बचते हुए भी यथासंभव द्रुत गति को बरकरार रखी हुई कार इस नये अवरोध का सामना होते ही मंद पड़ गयी और कुदरत के नियम का सहज और आसान भाव से स्पष्टीकरण हुआ - "प्रौद्योगिकी विकास की दर किसी मानव समाज की मूलभूत स्थिति के समानुपाती होती है." आगे का इलाका कुछ सब-अर्बन टाइप का था. हर सौ - डेढ़ सौ मीटर पर इलाके की नाम पट्टिकाएँ बदल जाती थीं. सो, नाम-वाम याद नहीं रख पाये.
गाड़ी की स्टेयरिंग भाई-साहब संभाले थे और अपन सैर का पूरा आनंद ले रहे थे. अचानक स्पीड में तेजी आ गयी. क्या हुआ? सामने सड़क पर एक रेल्वे-क्रॉसिंग था जिसका गेट बंद होने का सिग्नल दे रहा था. कार तेज भगाई गयी पर व्यर्थ. पहुंचते-पहुंचते फ़ाटक बंद. दोनों ओर काफ़ी सारे वाहन जमा थे. सामने वाली ओर सबसे आगे एक मिनी बस थी, जो यात्रियों से खचाखच भरी थी. उसका कन्डक्टर भागता हुआ फ़ाटक के संतरी के पास पहुंचा और उसे कुछ दक्षिणा थमाई. देखते ही देखते गेट खुलने लगा और वाहन आगे बढ़ने लगे. हम लोग भी निकल लिये. एक नयी बात पता चली कि ये श्रीमान फ़ाटकचंद जी कारीगर आदमी हैं. ये सड़क मुख्य भोपाल को इस इलाके से जोड़ती है और दिनभर व्यस्त रहती है. काफ़ी सारे टेम्पो, ऑटो, मिनी बस वगैरह पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्हीकल यहां से निकलते हैं. ये जनाब गाड़ी आने के बहुत पहले ही गेट को बंद कर देते हैं. बस वाले जल्दी में रहते हैं. जितने ज्यादा फ़ेरे लगायेंगे, उतनी ज्यादा आमदनी. यहां खड़े रहना पड़े तो उन्हें नुक्सान होता है. तो अगर जल्द निकलने के लिये दस-बीस रुपये फ़ाटकचंद जी को भेंट चढ़ाने पड़ते हैं. क्या कमाल के लोग हैं इस देश में. कहां-कहां से आमदनी के जरिये तलाश लेते हैं.
बिड़ला मन्दिर के द्वार के सामने लम्बी दूरी तक दोनों ओर फ़ूल-पत्री और खिलौनों की कई छोटी-बड़ी दुकानें सजी थीं जहाँ तरह-तरह के सजावटी आईटम लटक रहे थे. इनमें अधिकांशतः अनियमित प्रकार की दुकानें थीं जिन्हें टीन-टपरे आदि से केवल अवसर विशेष के लिये तैयार किया गया था. दुकानदार लोग संतुष्ट भाव से गद्दियों पर जमे सैलिंग डिपार्टमेंट संभाले थे तो उनकी अर्द्धांगिनियां दुकानों के पीछे ही जमीन पर कारखाने खोले हुए थीं जिनमें फ़ूलों को मालाओं में परिवर्तित करके वेल्यू एडीशन किया जा रहा था. कारखाने से रिटेल तक की सप्लाई का दायित्व उनके बच्चे संभाले थे. भारी रेल-पेल मची थी.
न्यू मार्केट तक पहुंचते हुए काफ़ी देर हो चुकी थी. थोड़ी-बहुत देर पैदल घूमा गया और फ़िर घर वापसी. यहीं पर लाल बत्ती पर एक दस-बारह साल का लड़का कुछ तिरंगे लिये हुए पास आ गया और खरीदने के लिये अनुरोध करने लगा. उसे बताया गया कि सुबह ही झंडे खरीद लिये गये हैं. लड़का स्मार्ट था. बिना समय गंवाए फ़ुर्ती से दूसरी कार की ओर लपका. दो-तीन कारों पर घूमकर कुछ ही पलों में फ़िर आ गया. कहने लगा एक मुझसे भी खरीद लीजिए ना. एक झंडा और खरीद लिया गया. मैंने उसका एक फ़ोटो लिया. बढ़िया सा पोज़ बनाकर उसने खिंचवाया और तुरंत बोला, "दिखाओ कैसा आया". खुद को स्क्रीन पर देखकर खुश हो लिया और हवा में उछलते हुए स्वर-लहरियाँ बिखेरने लगा - "ओए-ओए-ओए-ओए". गाड़ी आगे बढ़ ली थी कि उसके किसी साथी की आवाज़ सुनाई दी, "एक मेरा भी".
जन्माष्टमी की रात थी. देर तक जागना हुआ. ज्यादातर समय टीवी चैनल सर्फ़ करते हुए गुजरा. न्यूज़ चैनल्स देश भर के मंदिरों से सीधा प्रसारण दिखा रहे थे. सुबह एक परिचित के यहां मिलने जाना था. जल्दी उठना होगा. साढ़े छैः बजे का अलार्म लगाया और एक बजते-बजते बिस्तर के हवाले हो लिये.
(दूसरा भाग समाप्त,
13 comments:
बहुत बढ़िया चल रहा है यात्रा वृतांत..जारी रहें.
जे ठीक नईं हे । हमारे बचपन के शहर को अपने बचपन का शहर कहकर चिढ़ा रहे हो ख़ां । कों मियां ।
अब हमें तो बेचैनी में डाल दिया ना । समंदर किनारे के शहर में छोटी-झील, बड़ी झील, इतवारा, इब्राहीमपुरा,श्यामला हिल्स, ईदगाह हिल्स और भदभदा गेट कर रिए हें । ऊपर से न्यू-मार्केट भी घूम आए । वहां तो भरी सर्दियों में भी हम वाडीलाल की आइसक्रीम खाते थे । हम भी आते हैं भोपाल । भोपाल वेट आय एक कमिंग ।
@ यूनुस जी: भोपाल मेरे बचपन का शहर नहीं है. लेकिन वहां काफ़ी सारे परिचित-रिश्तेदार बसे हैं. सो बचपन से ही आना जाना और ठहरना होता रहा है.
"... संघर्ष कुछ सेकेन्ड्स ही चला, ब्लॉगर विजयी रहा."
ब्लोगर हमेसा ही विजयी रहता है, कई ऐसी बातें जो सपने में भी किसी को बताने के लिए नही सोंचती ..इसी मुए ब्लोगर मन के बहकावे में आकर यहाँ छांप चुकी हूँ.
(अनुरोध स्वीकारने का शुक्रिया )
बहुत बढिया रही यात्रा। आगे की भी प्रतीक्षारहेगी।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को प्रगति पथ पर ले जाएं।
रतलाम में रहते हुये मेरे मण्डल का अन्तिम स्टेशन था बैरागढ़। भोपाल बहुधा आना-जाना होता था। वह सब आपकी पोस्ट से याद हो आया।
अब तो हमारे कार्य क्षेत्र में मध्यप्रदेश का एक ही महत्वपूर्ण शहर है - ग्वालियर। और वह मैने अभी तक देखा नहीं!
आप कभी वहां की भी सैर करा दीजिये ब्लॉग के माध्यम से।
भोपाल की याद ताज़ा कर दी भाई! अभी पिछले सोमवार ही तो लौटा हूँ वहां से नौ दिन बिता के.
वहां एक दिन थोडा पानी गिरे तो दो दिन ठंडक रहती है और यहाँ दिल्ली में कितनाभी पानी गिर जाये गर्मी अक्टूबर तक रहेगी.
भोपाल को देश की राजधानी बनाया जाये तो कैसा रहे? देश के बीचोंबीच है.
@ लवली जी: आपके तर्कों में दम था. और उसका महत्व भी समझ में आया. शुक्रिया आपको भी.
@ कैटरीना: धन्यवाद.
@ ज्ञान जी: आपका आदेश सर माथे पर. जल्द ही लीजिये.
@ निशांत मिश्र जी: एकदम सही कहा आपने. भोपाल की आबोहवा अभी भी काफ़ी बढ़िया है.
शुक्रिया, भोपाल की यादे ताजा करा दी आपने....
इस शहर से कुछ खास लगाव है अपना....
Bahut sundar...ham bhi ek bar bhopal gaye the..yaden taja ho gain.
आपकी लिखने की शैली बड़ी मजेदार है। मानों शब्दों के साथ साथ शहर की यात्रा करवा रहे हों।
बड़ा तालाब तो हम भी अभी अप्रेल में श्री रवि रतलामी जी के सौजन्य से देख आये... सड़क से ही सही।
रोचक यात्रा
मजेदार। सुन्दर फोटो! बच्चा बताओ रात को पौने दस बजे ओये-ओये कहते हुये झंडा बेच रहा है। विवरण चौकस हैं। ज्ञानजी को ग्वालियर कत्तई नहीं घुमाना। वे अपना कैमरा और रेल लेकर जायें और सबको घुमायें! कुछ तो करना होगा आखिर टाप के ब्लागर हैं !
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