Wednesday, January 13, 2010

और अब एक बेहद आसान सांकेतिक विज्ञान पहेली तस्लीम वाले जाकिर भाई के लिये

भई अपन तो गच्चा खा गये सांकेतिक का संकेत समझने में. जाकिर भैय्या कहते हैं कि दैनिक हिन्दुस्तान ने बताया कि किसी ऑस्ट्रेलियन मौसम विज्ञानी ने बोला करके कि ओजोन का होल सिकुड़ चला है. उसी रपट से एक चित्र उन्होंने अपनी पहेली के लिये चुन लिया. अब दैनिक हिन्दुस्तान के किसी गैर जानकार और लापरवाह पत्रकार ने ओजोन होल को दर्शाने के लिये होल-पंच क्लाउड का चित्र लगाया था और हमने जस का तस टीप लिया तो इसमें हमारी क्या गलती? कह तो दिया था कि केवल सांकेतिक पहेली है.

बात तो सही है. चलिये जाने देते हैं. लेकिन फ़िर मन में ख्याल आया कि जाकिर भाई इतनी शानदार पहेलियां बूझने के लिये न जाने कहां कहां से ढूंढ कर लाते हैं. लेकिन खुद उन्हें कभी अवसर नहीं मिलता कि वे भी एक प्रतियोगी की तरह शामिल हो सकें. तो हमने भी एक पहेली बनाई, उन्हीं के नक्शएकदम पर चलते हुए इसे सांकेतिक पहेली का रूप दिया. आज यही पोस्ट है.

वैसे तो ये पहेली खालिस रूप से जाकिर भाई के लिये बनाई गई है पर बाकी लोगों के भी इसमें भाग लेने पर कोई मनाई नहीं है. आप भी अपनी किस्मत आजमा सकते हैं. पहेली बहुत आसान है, कोई बच्चा भी आसानी से बूझ सकता है. जरा बताइये तो इस चित्र में क्या दिखाया गया है. सही जवाब देने वाला होगा पहेली मर्मज्ञ. सर्टिफ़िकेट के बारे में भी सोचेंगे.


कुछ पहेली विशेषज्ञों के जवाब (जो अनफ़ॉर्चुनेटली गलत जवाब हैं) यहां आपकी मदद के लिये साथ में दिये जा रहे हैं. आशा है इन गलत पगडंडियों से बचते हुए सही पथ पकड़ने में कुछ मदद मिलेगी.

१) सीमा गुप्ता जी: रस्सी.

२) सीमा गुप्ता जी (फ़िर से): Rope.
A rope is a length of fibers, twisted or braided together to improve strength for pulling and connecting. It has tensile strength but is too flexible to provide compressive strength (i.e. it can be used for pulling, but not pushing). Rope is thicker and stronger than similarly constructed cord, line, string, or twine.

३) अल्पना वर्मा जी: जूट से बनी रस्सी है.

४) प्रकाश गोविंद जी: रस्सी है ये.
(i) A flexible heavy cord of tightly intertwined hemp or other fiber.
(ii) A sticky glutinous formation of stringy matter in a liquid.

५ उड़न तश्तरी जी: रस्सी जैसा ही कुछ लगता है.
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आप हिन्दी में लिखते हैं, अच्छा लगता है. कृप्या अपने जैसे कुछ और बांगडु़ओं को भी हिंदी चिठ्ठाकारी में आने के लिये प्रेरित करें. आज ही कम से कम दस नये हिंदी चिठ्ठे बनवायें और इस चिरकुट समुदाय की सदस्य संख्या में इज़ाफ़ा करने में अपना सक्रिय योगदान दें. प्रोत्साहन ही सफ़लता की ओर प्रथम कदम है.

धन्यवाद,

- समीर लाल

६) डॉ. अरविन्द मिश्र जी: आधारभूत संरचना की गहन तत्व विवेचना के उपरांत यही निष्कर्ष पाया कि हो न हो ये उसी सन (हिन्दी वाला) से निर्मित कोई व्यवस्था है जो अपनी भौतिक अवस्था में रस्सी (या रस्सा, हा हा) कहलाने के करीब है. बाकी पूरी जानकारी तो गुणीजन ही देंगे.

७) अल्पना वर्मा जी (फ़िर से): नायलोन की रस्सी भी हो सकती है.

८) संजय बेंगाणी जी: सही जवाब तो आ ही चुका है. वैसे सुना है कि पामेला एंडरसन और एंजलीना जोली के बैड के पास भी ऐसी ही रस्सी रखी रहती हैं, लेकिन शायद इससे कुछ पतली. यू नो हाउ मच दे....

९) रचना जी: मिस्टर घोस्ट बस्टर! आपसे ऐसी घटिया पोस्ट की उम्मीद नहीं थी. नारी की दिन-प्रतिदिन की समस्याओं से आम ब्लॉगर का ध्यान हटाकर उसे इन फ़ालतू की पहेलियों में उलझाने के आपके प्रयास की मैं निंदा करती हूं. इसे लेकर आप पर क्या दावा किया जा सकता है, इस बारे में मैं एक अच्छे लॉयर से कन्सल्टेशन ले रही हूं. वैसे भी अब संसद में कानून पास होने वाला है. उसके बाद रस्सी को रस्सा कहने वाले कहने से पहले हजार बार सोचेंगे.

१०) शिवकुमार मिश्र जी: आचार्य सिद्धू जी महाराज कहते हैं - "ओये गुरु, सुन ले. रस्ते में पड़ी रस्सी को कभी सांप न समझना. धोखे से हुई गलती को तुम पाप न समझना. स्टेज पर चढ़ कर अगर कर लो कभी बक-बक, अपने को मगर सिद्धू का तुम बाप न समझना."

११) घोस्ट बस्टर: दोस्तों, दोस्तों, दोस्तों! जरा ध्यान दीजिये. ये एक सांकेतिक पहेली है, जैसा मैंने पहले कहा. कृप्या जवाब देते समय इस बात का ख्याल रखिए. अभी तक के सभी जवाब सही हल से काफ़ी दूर हैं.

१२) लवली कुमारी जी: भुजंग. इसकी बनावट के सीधेपन को देखते हुए कह सकते हैं कि ये एक भारतीय भुजंग नहीं हो सकता.

१३) सुरेश चिपलूनकर जी: ये वो फ़ांसी का फ़ंदा है जो अफ़ज़ल के गले में जाने के लिये राष्ट्रपति महोदया द्वारा अनावरण के इंतजार में है.

१४) सीमा गुप्ता जी (एक बार फ़िर से): swing (झूला).

१५) दिनेशराय द्विवेदी जी: इस प्रकार की उलझन में डालने वाली पहेलियों का कोई एक विशिष्ट हल निर्धारित नहीं किया जा सकता. वैसे चित्र को लगाने से पहले आपने कॉपीराइट प्रावधानों का ध्यान तो रखा ही होगा.

१६) ab inconvenienti: I won't be a part of these bullshits anymore.

१७) rachna singh जी: maerii baat kaa ab tak koee jawaab kyon nahIIn diyAa gayaa??? watch for the next post on naari.

१८) बबली जी: आपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
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५५ गलत जवाबों के बाद...
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५६) घोस्ट बस्टर: अफ़सोस की बात है कि इतने हिंट देने के बाद भी कोई भी इस आसान सी पहेली को नहीं बूझ पाया. सही जवाब है - ये एक बाघ की पूंछ है. वाइल्डलाइफ़ में रुचि रखने वाले जानते हैं कि दुनिया में बाघों की संख्या कितनी तेजी से कम होती जा रही है. हालांकि विश्वस्तर पर टाइगर्स के बचाव के लिये अनेक योजनाएं बनाई गई हैं पर अब तक वे नाकाफ़ी साबित हुई हैं. आइये हम सब शपथ लें कि जितने भी हो सकें, बाघ को बचाने में अपना योगदान देंगे. यही एक विज्ञान प्रेमी ब्लॉगर का अपनी ओर से एक विनम्र प्रयास है.

Sunday, September 13, 2009

ग्वालियर पुस्तक मेले की सैर और कुछ खरीदी

कई वर्षों से लगातार यही सुनने में आ रहा है कि पुस्तकों में आम पाठकों की रुचि तेजी से समाप्त होती जा रही है. खास तौर पर हिन्दी की किताबों का तो बुरा हाल है. हाल ही में दिल्ली पुस्तक मेले में पाठकों की कम उपस्थिति से उपजे निराशाजनक परिदृश्य की जानकारी देती श्री सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी की भी पोस्ट पढ़ी.

मगर सुकून है कि कम से कम हमारे यहां अभी ऐसे हालात नजर नहीं आते. प्रतिवर्ष अगस्त के महीने में जिस खास आयोजन का पुस्तक प्रेमियों को इंतजार रहता है वह है स्थानीय फ़ूलबाग मैदान पर सजने वाला पुस्तक मेला. पिछ्ले कुछ वर्षों से दैनिक भास्कर ग्रुप के तत्त्वावधान में आयोजित होते आए पुस्तक मेले का इस बार का संयोजन दिल्ली की एक संस्था 'समय इंडिया' ने किया. काफ़ी सारे नामी-गिरामी प्रकाशकों की उपस्थिति से मेले में खासी रौनक रही.

७ से १६ अगस्त तक चले मेले में हमने दो दिन फ़ेरे लगाये और कुछ खरीद-फ़रोख़्त की. पहला दौरा ९ अगस्त को रहा और दूसरा मेले के अंतिम दिन, यानी १६ अगस्त को (१५ को भोपाल से लौटे थे). १६ तारीख़ को दिन भर काफ़ी तेज पानी बरसता रहा, लेकिन पुस्तक प्रेमियों के उत्साह पर इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ा और वे बड़ी संख्या में मेले में नजर आये. ये देखकर भी अच्छा लगा.

हरेक स्टॉल पर लोगों का खासा हुजूम था. हालांकि अंग्रेजी पुस्तकों की संख्या ज्यादा थी पर हिन्दी की अच्छी किताबें भी
कम नहीं थीं और लोग इन्हें खरीद भी रहे थे. बच्चों की किताबों में टीवी की दखल स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी. बार्बी डॉल से लेकर टॉम एण्ड जैरी तक पुस्तकाकार उपस्थित होकर बच्चों को लुभा रहे थे. चलो इस बहाने ही सही, बच्चे पन्ने तो उलटना सीखें. वरना तो उन्हें ईडियट बॉक्स के कार्टून शोज़ से बाहर आने की फ़ुरसत ही नहीं है.

पुस्तक मेले को ज्यादा आकर्षक बनाने के लिये कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी साथ ही साथ चलते रहते हैं. ९ तारीख़ को बच्चों के लिये लॉफ़्टर चैलेंज का आयोजन था. छोटे-छोटे नौनिहाल, चार से लेकर बारह-चौदह की उम्र तक, स्टेज पर बड़े ही दिलेर अंदाज में उसी प्रकार के चालू-चलताऊ और कुछ हद तक अश्लील जोक्स सुना रहे थे जैसे कि टीवी पर इस प्रकार के फ़ूहड़ शोज़ में नज़र आते हैं. सामने दर्शकों में बैठे उनके माता-पिता अपने कलेजे के टुकड़ों के इन प्रदर्शनों को देखकर बलिहारी जा रहे थे. टेलीविज़न का कितना जबर्दस्त असर है पब्लिक पर. (पिछली ट्रेन यात्रा में एक चीज़ जो बार-बार ध्यान खींच रही थी वो ये कि कई सारे कस्बेनुमा इलाकों की झोंपड़-पट्टी जैसी बस्तियों में तकरीबन हर घर के ऊपर डीटीएच की गोल छतरी नजर आ रही थी.)

काफ़ी देर रात तक भी मेले में लोगों का तांता लगा रहा. ज्यादातर लोग सिर्फ़ तमाशबीन नहीं थे बल्कि कुछ न कुछ खरीद रहे थे. प्रवेश शुल्क की व्यवस्था होने से भी गैर-जरूरी भीड़ की छंटनी हो जाती है. ये अच्छा है. १६ तारीख़ को बच्चों के लिये डांस प्रतियोगिता थी. इसमें भी अच्छी संख्या में बच्चों ने भाग लिया. यहां प्रदर्शित सभी फ़ोटो १६ तारीख़ के ही हैं.



कुछ खरीदी जो इस बार के पुस्तक मेले से की गयी:

1) जैनेन्द्र कुमार द्वारा चुनी हुई २३ हिन्दी कहानियाँ: एक सुप्रसिद्ध रचनाकार द्वारा पसन्द की गयी पिछले सौ वर्षों की प्रतिनिधि हिन्दी कहानियाँ. प्रेमचन्द की कफ़न और गुलेरी जी की 'उसने कहा था' के साथ जयशंकर प्रसाद और वृन्दावनलाल वर्मा की कहानियाँ इसमें शामिल हैं. विशम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक' की 'ताई' तो हर बार आँख नम करती है. सियारामशरण गुप्त की 'काकी' उसी से आगे की कथा लगती है और लगभग वही प्रभाव दिखाती है. इसके अलावा इलाचन्द्र जोशी की 'रेल की रात', यशपाल की 'मक्रील', विष्णु प्रभाकर की 'रहमान का बेटा' और अज्ञेय की 'विपथगा' भी हैं.

२) अमृतलाल नागर का उपन्यास 'सुहाग के नूपुर': नागर जी को मैने आज तक नहीं पढ़ा है. लम्बे समय से इच्छा थी. इससे पहले हिन्द पॉकेट बुक्स में भी यह किताब खरीद चुका हूं पर वह सम्पादित संस्करण था और यह सम्पूर्ण है. अब पढ़ता हूं. आवरण पर गुलाम मोहम्मद शेख की प्रसिद्ध कृति 'बोलती सड़क' का चित्र है जो काफ़ी आकर्षक है और एकदम से ध्यान खींचता है.

३) हरिवंशराय बच्चन की 'मेरी श्रेष्ठ कविताएँ': मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश और निशा निमंत्रण ले चुकने के बाद अब आकुल अंतर और एकान्त संगीत का नम्बर था. लेकिन स्वयं कवि की चुनी हुई कविताएँ देखकर इसी को खरीद लिया. यह भी काफ़ी मोटा माल है. लेकिन बच्च्न की जिस कविता की मुझे जोरों से तलाश है वह इसमें भी नहीं दिखी. नेट पर तलाशने पर केवल एक छ्न्द हाथ आया. देखिये

'अब्बर देवी जब्बर बकरा, तागड़ धिन्ना नागर बेल'
गाँधी की आँधी आई थी बीते लगभग बरस पचास
अपने साथ सपन लाई थी सब कुछ होगा सब के पास
वादों की लादी भर जनता आज रही है कांधें झेल
अब्बर देवी, जब्बर बकरा तागड़ धिन्ना नागर बेल

कुछ और पंक्तियाँ जो मेरे स्मृतिकोष से झांकती हैं:

i) वोट नहीं क्यूं पाया तुमने, तिकड़मबाजी में तुम फ़ेल
ii) घर की रानी पानी भरती, सर पर करती राज रखेल.

कई बरस पहले इंडिया टुडे के साहित्य वार्षिकी अंक में पढ़ी थी. इसे ढूंढने में कोई मित्र मदद कर सकता है क्या?

४) बच्चन की 'नीली चिड़िया': कुछ वर्ष पहले बड़ी बिटिया के लिये हिन्दी के बाल-गीतों की पुस्तिकाएँ ढूंढना चाही थीं तो बड़ी निराशा हाथ लगी थी. अंग्रेजी में तो भरपूर सामान उपलब्ध है पर हिन्दी में स्तरीय सामग्री कम मिल पाती है. इस किताब में कुछ मधुर बाल-गीत हैं जो महाकवि ने अपने एक पौत्र (अभिषेक नहीं) के जन्मदिवस पर उसके लिये रचे थे. क्या बढ़िया भेंट है बच्चे के लिये. एक पढ़िये -

बगुलों ने ऊपर से देखा
नीचे फ़ैला छिछला पानी,
उस पानी में कई मछलियाँ
तिरती-फ़िरती थीं मनमानी ।
सातों अपने पर फ़ड़काते
उस पानी पर उतर पड़े,
अपनी लम्बी-लम्बी टाँगों
पर सातों हो गए खड़े ।
खड़े हो गए सातों बगुले
पानी बीच लगाकर ध्यान,
कौन खड़ा है घात लगाए
नहीं मछलियाँ पाईं जान ।
तिरती-फ़िरती हुई मछलियाँ
ज्यों ही पहुंचीं उनके पास,
उन सातों ने सात मछलियाँ
अपन चोंचों में लीं फ़ाँस ।
पर फ़ड़काकर ऊपर उठकर
उड़े बनाते एक लकीर,
सातों बगुले ऐसे जैसे
आसमान में छूटा तीर ।

५) फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की प्रतिनिधि कविताएँ: इस बेमिसाल शायर की चुनी हुई नज़्में और गज़लें हैं इसमें. राजकमल प्रकाशन को धन्यवाद देने की इच्छा होती है. उन्होंने कई नामी कवि-लेखकों की रचनाओं के कम दाम संस्करण उपलब्ध करवाये हैं.

कुछ सुनना चाहेंगे? वैसे कोई एक छाँटना काफ़ी कठिन कार्य है.

गो* सबको बहम* सागर-ओ-बादा तो नहीं था हालांकि, उपलब्ध
ये शहर उदास इतना ज्यादा तो नहीं था
गलियों में फ़िरा करते थे दो चार दिवाने
हर शख़्स का सद-चाक-लबादा* तो नहीं था सौ जगह से फ़टा अँगरखा
मंजिल को न पहचाने रह-ए-इश्क का राही
नादाँ ही सही, इतना भी सादा तो नहीं था
थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सोकर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था.

६) जे. कृष्णमूर्ति की 'सोच क्या है": लम्बे समय तक ओशो को घोंटते रहने के बाद जब, बकौल गालिब, गमे रोजगार ने गमे इश्क पर विजय पाई, तो वह सब पढ़ाई सबसे पहले पीछे छूटी जो इंसान को बुद्धिजीवी होने के भ्रम में डाले रखती है. लेकिन राख में कहीं शोला दबा पड़ा रहा है, जो मौका मिलते ही भड़क उठने को बेताब हो जाता है. कुछ खिंचाव सा लगा इस लेखक और विषय के प्रति, खरीद ली गयी. अब बांचे जाने की प्रतीक्षा सूची में है.



और भी आठ-दस किताबें खरीदी गईं. पर अभी आपको दूसरे और ब्लॉग भी तो पढ़ने होंगे ना. तो इस पोस्ट से आपको यहीं मुक्त करते हैं. बाकी फ़िर कभी.

Thursday, September 10, 2009

लगता है अब हमें भी टिप्पणी मॉडरेशन चालू कर ही लेना चाहिये

इससे पहले कि पूरी बात का खुलासा हो, "अपने" चंद अश़आर पेश करने की अनुमति चाहूंगा.

चुपके चुपके से रात और दिन टसुओं का बहाना याद हैगा
हमको तो अभी तक आशिकी का वो जमाना याद हैगा.

हमें पता है कि आपका दिल वाह-वाह करने को मचल उठा होगा. पर दाद देने की जल्दी मत कीजिये. आगे और भी हैं. सुनिये.

कभी किताबों में फ़ूल रखना, कभी दरख़्तों पे नाम लिखना
हमें भी है याद आज तक वो नजर से हर्फ़*-ए-सलाम लिखना       शब्द/अक्षर/Letter/Alphabet

वह चाँद चेहरे वह बहकी बातें, सुलगते दिन थे महकती रातें
वह छोटे छोटे से कागज़ों पर मुहब्बतों के पयाम* लिखना             संदेश/Message

गुलाब चेहरों से दिल लगाना, वह चुपके चुपके नज़र मिलाना
वह आरज़ूओं के ख़्वाब बुनना, वह क़िस्सा-ए-ना-तमाम* लिखना   Never Ending Story

मेरे नगर की हसीँ फ़िज़ाओं, कहीं जो उन का निशान पाओ
तो पूछना के कहाँ बसे वह, कहाँ है उनका क़याम* लिखना               ठिकाना/Location

गयी रुतों मे 'हसन' हमारा, बस एक ही तो यह मशगला* था             कारोबार/Occupation
किसी के चेहरे को सुबह कहना, किसी की ज़ुल्फ़ों को शाम लिखना

हां, अब कीजिये इन कलम तोड़ रचनाओं की तारीफ़. हम शुक्रिया कहकर दाद बटोरने में कभी नहीं थकने वाले. आखिर रोज-रोज तो नहीं कहे जाते ऐसे उम्दा शेर. पता नहीं अगली बार कब मूड बने अपना. तो कंजूसी छोड़िये और तारीफ़ उछालिये.

लेकिन अगर कहीं गलती से ये शेर कहीं और पढ़े सुने लगें तो फ़िर चुपचाप शराफ़त से आगे का रास्ता देख लें. तब किसी कमेन्ट की जरूरत नहीं. अगर करेंगे भी तो मॉडरेट कर दिया जाएगा. जब तक गुरुदेव का आशीर्वाद हमारे साथ है, हमें किसी का डर नहीं.

अब एक गज़ल सुनिये. चित्रा सिंह की आवाज में है गुरुदेव की ये गज़ल.



स्वर: चित्रा सिंह
शायर: तारिक बदायूंनी

इक ना इक शम्मा अन्धेरे में जलाये रखिये,
सुब्हा होने को है माहौल बनाये रखिये
जिन के हाथों से हमें ज़ख़्म-ए-निहाँ पहुँचे हैं,
वो भी कहते हैं के ज़ख़्मों को छुपाये रखिये
कौन जाने के वो किस राह-गुज़र से गुज़रे,
हर गुज़र-गाह को फूलों से सजाये रखिये
दामन-ए-यार की ज़ीनत ना बने हर आँसू,
अपनी पलकों के लिये कुछ तो बचाये रखिये

अठारह महीनों के ब्लॉगर जीवन में कल तीसरी बार ऐसा हुआ कि एक ब्लॉग पर हमारी टिप्पणी मॉडरेट करके साफ़ कर दी गयी. ऐसा कुछ गलत नहीं था टिप्पणी में. ये रही जस-की-तस:

???
इनमें से अधिकांश शेर जगजीत सिंह या चित्रा सिंह की आवाज में सुने हैं. मूल लेखकों का नाम पोस्ट में साथ दिये जाने की अपेक्षा की जाती है.

हमारी टिप्पणी साफ़ हुई और वाहवाहियां बरसती रहीं. जय हो मॉडरेशन की. बड़ा काम का हथियार है भाई. इसे तो अब लगा ही लेना चाहिये सभी को. वैसे मुफ़्त में एक सीख मिली. जिस किसी पोस्ट पर उड़न-तश्तरी जी की टिप्पणी ना हो, उसे थोड़े संदेह की दृष्टि से ही पढ़ा जाना चाहिये.

एक और हो जाए? जय गुरुदेव. सुनिये.



स्वर: जगजीत सिंह
शायर: निदा फ़ाज़ली

अब खुशी है ना कोई दर्द रूलाने वाला,
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला
उसको रूख़्सत तो किया था मुझे मालूम ना था,
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला
एक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया,
कोई जल्दी में कोई देर से जाने वाला
एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा,
जिस तरफ देखिये आने को है आने वाला

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ये दूसरी वाली गज़ल बहुत गमज़दा  स्वर की है. ये "होप" एल्बम से है जो जगजीत और चित्रा के युवा और इकलौते बेटे विवेक की एक कार दुर्घटना में दुखद मौत के कुछ ही समय बाद जारी किया गया था. ये एल्बम इस मायने में भी ऐतिहासिक है कि इसके बाद चित्रा सिंह ने गज़ल गायन से मुंह मोड़ लिया. पिछले बीस वर्षों में उनके सिर्फ़ भज़नों के इक्का-दुक्का एल्बम ही आये हैं.

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